आज एक वक्तव्य पढ़ा कि देश में मोदी की लहर नहीं , बीजेपी की लहर है। मजे की बात यह है कि इस तरह के वक्तव्य देने वाले किसी अन्य पार्टी के न होकर बीजेपी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी हैं। सोंचने की बात है की जोशी जी को इस तरह का वक्तव्य देने की क्या आवश्यकता पड़ गई। शायद उनका अहं उनको यह स्वीकार करने नहीं दे रहा है कि इस बार उन्हें अपने से कम उम्र के व्यक्ति के नेतृत्व में चुनाव लड़ना पड़ रहा है। एक बात यह भी है कि बीजेपी में मुरली मनोहर जोशी जैसे कई वरिष्ठ नेता हैं जिन्हे मोदी की लोकप्रियता से ईर्ष्या होने लगी है। अभी पिछले दिनों ही उमा भारती ने भी कुछ इसी तरह का वक्तव्य देकर चर्चा का विषय बना दिया था कि मोदी में अटल जैसी भाषण देने कि कला नहीं है। मुझे लगता है कि ज्यो - ज्यो मोदी की लहर आंधी में तब्दील होने लगी है इन वरिष्ठ नेताओ के पेट में दर्द होने लगा है। इन्हे लगने लगा है कि अगर मोदी की सरकार बन गई तो इन जंग लगे नेताओ की छुट्टी तय है। इनके बड़बोलापन पर अंकुश लगना तय है इसलिए अपनी अहमियत दर्ज करने के लिए इस तरह की सोंची - समझी रणनीति अपना रहे हैं।
सही बात तो यह है कि मोदी के प्रादुर्भाव होते ही बीजेपी में रक्तसंचार होना शुरू हुआ है अन्यथा जिस तरह से एक के बाद एक बीजेपी के गढ़ ध्वस्त हो रहे थे उससे तो लग रहा था बीजेपी नेपथ्य में चली जाएगी। पहले उत्तराखंड से बीजेपी की छुट्टी हुई , फिर हिमाचल और कर्नाटक भी हाथ से चले गए।
यह वह समय था जबकि लग रहा था कि बीजेपी अपना परचम फहरायेगी परन्तु उसके उलट कांग्रेस इन राज्यों में बीजेपी को हटा कर सत्ता में आ गई।
यह वह समय था जबकि हिंदुस्तान की जनता कांग्रेस के कुशासन से तंग आ गई थी , तभी तो अन्ना हजारे के लोकपाल के लिए एक जान सैलाब उमड़ पड़ा था। ऐसी परिस्थितियों में बीजेपी अपना बजूद नहीं कायम रख सकी और अपनी अंतर्कलह में ही फंसी रही ।
यह तो मोदी ही थे जिन्होंने इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी गुजरात में अपना परचम लहराया। अब लोग मोदी में इस कुशासन से मुक्ति के लिए उम्मीद की किरण देख रहे हैं; परन्तु बीजेपी के इन वरिष्ठ नेताओ का आपसी द्वेष पार्टी के लिए आत्मघाती बनता जा रहा है।
यह प्रश्न बार - बार कौंधता है कि उस समय यह अडवाणी , जी , सुषमा जी , जोशी जी , उमा जी कहाँ थे जब बीजेपी के हाथो से राज्यों की सत्ता निकलते जा रही थी। उस समय मुझे बहुत तकलीफ हुई थी कि किस तरह से एक के बाद एक घोटाले , केंद्र सरकार के , जनता के सामने आ रहे हैं , मंहगाई सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती जा रही है परन्तु लोग फिर भी कांग्रेस को चुन रहे हैं। इस पराजय के बाद निराश होकर मैंने एक लेख भी लिखा था जिसका शीर्षक था क्या प्रजातंत्र मूर्खो का शासन होता है।
आज जब मोदी के नेतृत्व में राजस्थान वापस मिल गया , मध्यप्रदेश , छत्तीसगढ़ में विजय मिली दिल्ली में भी अगर केजरीवाल ने नौटंकी न की होती तो दिल्ली में भी बीजेपी की सरकार होती। यह सब देख कर भी यह नेता गण अगर अपना स्वार्थ देख रहे हैं तो इनसे घृणित अन्य कोई कृत्य हो ही नहीं सकता। मै समझता हूँ कि इन नेताओ पर , राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ही इस तरह के बड़बोलेपन पर लगाम लगा सकती है।
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