Saturday 18 July 2015

एक लुप्तप्राय कला नौटंकी


यूँ तो नौटंकी भारतवर्ष के अलग- अलग राज्यों में कलाकार अलग- अलग  ढंग से प्रदर्शित करते हैं।  यहाँ मै अपने शहर शाहजहाँपुर में होने वाली नौटंकी की बात कर रहा हूँ।  जो कि बचपन की भूली - बिसरी यादो में से एक है । 
आज से तीस - चालीस साल पूर्व मनोरंजन के सीमित साधनो में से एक साधन  थी नौटंकी।  आमतौर पर गर्मी या बरसात के दिनों  में ही नौटंकी का आयोजन  होता था।   
नौटंकी के लिए कोई स्थान विशेष नहीं होता था।  शहर के किसी तिराहे या चौराहे  पर नौटंकी का आयोजन किया जाता था ।  मोहल्ले के लोग आपस में चंदा इकठ्ठा करके  नौटंकी करने वाले कलाकारों से नौटंकी करवाते थे।   जहाँ तक मुझे याद है उस समय 50 /- से 100 /- रूपये में ही इसका आयोजन हो जाता था।   नौटंकी रात के करीब ग्यारह- बारह बजे शुरू होती थी और पौ फटने  तक चलती थी।     इसके विषय होते थे लैला - मजनू , सुल्ताना डाकू , आल्हा - उदल , राजा हरिश्चंद्र, अमर सिंह राठौर  आदि।  इनमे से किसी एक विषय पर नौटंकी  खेली जाती  थी।  
जिस जगह नौटंकी होने को होती थी उस तिराहे या चौराहे  पर दिन के समय एक सफ़ेद चादर तान दी जाती थी।  जिससे उस रास्ते से आने- जाने वाले लोगो को पता लग जाता था।  
नौटंकी में बहुत ही सीमित  पात्र होते थे जिनमे से दो- तीन स्त्री और दो- तीन  पुरुष होते थे।  वही  सब तरह के रोल अदा करते थे।   कहानी दिलचस्प रखने के लिए वीरता, प्रेम, मज़ाक़, नाच - गाना  मिलाया जाता था।   कलाकार का  प्रयास रहता  था  कि  सभी चीजो में तारतम्य बना रहे ।  नाच - गाना  इसका आवश्यक अंग था।   नाच - गाने के बीच में कई दर्शक रूपये देते थे।  रूपये देने वाला दर्शक अपनी जगह से ही रुपया दिखता था जिसे जोकर या  भांड आकर ले लेता था और उसका नाम पूछ कर  नाचने वाली को बता देता था ।  नाचने वाली उसका नाम पुकार कर  उसके नाम से  ठुमका लगा देती थी।   दर्शको द्वारा दिए जाने वाले रूपये -पैसे ही इन  नौटंकी के कलाकारों की आय का मुख्य  साधन थे। 
नौटंकी की सबसे विशेष बात थी इसका नगाड़ा।  यह नगाड़ा ही नौटंकी का विशेष वाद्य यंत्र हुआ करता था।  वादक एक बड़े नगाड़े के सामने एक छोटा नगाड़ा रख कर बजाता था।  वही वादक अच्छा माना जाता था जिसके नगाड़े की गूंज रात के सन्नाटे में कई कोस तक चली जाती थी। नगाड़े के अतिरिक्त हारमोनियम एवं तबला का प्रयोग भी किया जाता था।  
उस जमाने में टेन्ट हाउस वगैरह तो होते नहीं थे , रात ढलते ही , अड़ोस - पड़ोस रहने वालो  के यहाँ से तख्त इकठ्ठे करके सड़क के बीच में नौटंकी का स्टेज बनाया जाता था।  पुरुष - बच्चे  स्टेज के चारो तरफ बैठ कर एवं  महिलाये पड़ोस के  घर के छज्जो या छतो से नौटंकी देखते थे।  
सबसे बड़ी बात , कि रात में, उस रास्ते  से  गुजरने वाले ट्रक , बस के ड्राइवर भी अपने ट्रक या बस को एक साइड में खड़ा करके नौटंकी देखते थे।   कोई किसी तरह का विरोध नहीं करता था कि नौटंकी के कारण रास्ता रोक  रखा है या फिर अड़ोसी - पड़ोसियों को रात में उनकी नींद में खलल पड़ने से विरोध करना पड़े । आज के समय में तो जो बाहुबली हैं वह  अपने आप ही निपट लेते  अन्यथा अन्य  पुलिस बुला लेते या फिर कोर्ट केस कर देते।  
 क्या जमाना था दुसरो की ख़ुशी में खुश , दुसरो के गम में दुःख।   कितनी गुंजाईश लोगो में होती थी लोगो के दिलो मे।  
वक्त के गुजरने के साथ ही साथ नौटंकी भी गुजरे वक़्त  यादो में सिमट गई है।  

Monday 6 July 2015

नहीं चाहिए ऐसे नेता



पिछले एक - दो दिनों में जो समाचार पढ़े,  उन्हें पढ़ कर यही लगता है हमारे देश के लिए  यह  बहुत दुर्भाग्य पूर्ण है कि आम  जनता के  वोट से नेता बनते ही  इन नेताओ के दिन  बहुरने लगते हैं , यह आम आदमी से खास बन जाते हैं , यह माननीय बन जाते हैं।  और उसके बाद  दौर शुरू होता है विशिष्ट सुविधाओ का, जो कि नेता बनते ही इन्हे चाहिए।  

सांसदों को 100 % सेलरी में बढ़ोतरी चाहिए  एवं अन्य बहुत सी सुवधाएं चाहिए , जो भूतपूर्व हैं उन्हें भी चाहिए , दिल्ली के आम आदमी विधायको का  84 हजार रूपए मासिक में गुजर नहीं हो पा  रहा है।  अभी तेलांगना नया - नया राज्य बना है , वहां के मुख्य मंत्री आम आदमी की तरह बस से सफर करना चाहते हैं इसलिए पांच करोड़ की लग्जरी बस उनके लिए खरीदी जा रही है।  


क्यों भाई क्यों , यह सब सुविधाए हमारे ऊपर टैक्स थोप कर ही तो  इन्हे दी जाती हैं।  क्यों भाई , एक तरफ तो समाज सेवा का गमछा ओढ़े हुए जनता को तरह - तरह से लुभाते हो , हम तो आपकी सेवा करना चाहते हैं ,किसी तरह से हमें नेता बना दो देखो मै कितनी सेवा करता हूँ।  लेकिन नेता बनते ही अपनी सेवा शुरू हो जाती है।  

 इन पर यह  मुहवरा चरितार्थ होता है कि " हाथी के दाँत खाने के और , दिखाने  के और होते हैं।  

नही चाहिए भाई हमें ऐसे नेता , मत वोट की भीख माँगने आओ , बैठो अपने घर पर , यह आम जनता नहीं जाती है आपके घर पर कि हजूर चलिए आप हमारे नेता बन जाइए।  आप आते है हमारे दर पर , लम्बे - लम्बे भाषण देते हैं , सुहाने सपने दिखाते हैं , क्या इसीलिए कि एक बार चुन लिया जाऊ फिर देखो  कैसे सीने पर मूंग दलूँगा।  

जब आपके पास इतने संसाधन नही है कि आप अपने परिवार का खर्च चला सके , तो क्या जरूरत है नेता बनने की।  कहीं नौकरी करो , कोई दुकान करो अपने परिवार का भरण - पोषण करो।  क्यों हम लोगो की जेब पर डाका डालना चाहते हो ।  
अरे भाई नेता तो हम  भी बन सकते  थे , जहाँ जाते सब लोग सैल्यूट करते , सबकी निगाहे हम पर टिकी रहती , यह पुलिस वाले जहाँ चाहे वहाँ हाथ  कर रोकते नहीं , इनकी हिम्मते नहीं होती कि पूछते कहाँ जा रहे हो , क्या ले जा रहे  हो , थैले में क्या है , पर क्या करे परिवार की जिम्मेदारी जो निभानी थी।  नेता बनते तो परिवार का खर्च कैसे चलता।  
अब अगर आपका खर्च नहीं चलता तो घर बैठिये , बहुत सारे लोग है जो इससे कम तनख्वा में देश भी चला सकते हैं और अपना घर भी।  

राम धारी सिंह 'दिनकर की  कविता याद आ रही है , कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है"

तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

Monday 1 June 2015

टिटहरी


टिटहरी एक चिड़िया , अपनी कर्कश, तेज आवाज के लिए जानी जाती है  , उसकी  यही कर्कश तेज आवाज उसे उसके  अपने बच्चो की रखवाली करने में बहुत मददगार साबित होती  है , अपनी तेज आवाज से अपने बच्चो को  आने वाले खतरों से आगाह करती रहती है , साथ ही साथ अन्य छोटे - मोटे जीवों को डरा कर अपने बच्चो के पास आने नहीं देती है। 

पिछले दो सालो से देख रहा हूँ कि आजकल के दिनों में ही पता नहीं कहाँ से आकर   घर की छत पर, खुले आसमान के नीचे अपना घोसला बना लेती है।  अन्डो से जैसे ही बच्चे निकलने के कुछ समय बाद  वह फुदकते हुए छत से नीचे कूद आते हैं ,

इसके बच्चो को देख कर लगता है कि बच्चे चाहे इंसान के हो या किसी अन्य प्राणी के , शरारत जरूर करते हैं। अभी बहुत छोटे ही थे , एक दिन देखा लॉन   से कूद कर ड्राइव वे पर गये , अब टिटहरी लगातार  शोर मचा रही  थी , मुझे भी लगा कि अगर गेट से बाहर निकल गए तो इनका बचना मुश्किल है।  कूद कर नीचे तो गये परन्तु वापस जाने के लिए चार इंच ऊँची सीढ़ी  भी नहीं चढ़ पा रहे थे , लकड़ी के दो फट्टे रखे तब जाकर उसके दोनों  बच्चे  फुदक कर वापस लॉन में पहुंचे। 

पिछली बार तो बिल्ली चट  कर गई थी , : परन्तु इस  बार मनी प्लांट के बड़े - बड़े पत्तो में छिप  कर बच गए।  

सबसे बड़ी बात तो उन दोनों नर - मादा टिटहरी की अपने बच्चो के लिए की गई तपस्या है।  हर समय एक छत के ऊपर बैठा हुआ , भरी गर्मी में, तपती धूप में  चौकीदारी करता रहता है दूसरी मादा बच्चो  के आस-पास मंडराती रहती है।  जैसे ही घर का कोई भी सदस्य बाहर लॉन की तरफ आता है ; जोर - जोर से अपनी कर्कश आवाज में शोर मचाना शुरू कर देती है और उसके बच्चे पत्तो में जाकर छिप जाते हैं।    24  घंटे उनकी रखवाली कर रहे हैं पता नहीं किस समय यह आराम करते होंगे।  सारे दिन , सारी  रात शोर मचाती रहती है।  

15-20  दिन हो गए हैं , अब थोड़े बड़े हो गए हैं ; परन्तु अभी भी  उड़ने लायक नहीं हुए , अभी मादा टिटहरी  दोनों बच्चो के साथलॉन में इधर - उधर घूमती रहती है   जैसे ही  उड़ने लायक होंगे , उड़ कर अपनी नई दुनिया में चले जायेगे , पता नहीं टिटहरी के साथ जायेंगे या अपनी एक नई मजिल की तलाश में कहीं और.…………  शायद टिटहरी भी एक नए गंतव्य की और चली जाएगी। 

सवाल बहुत से हैं और उसमे एक यह भी है कि  क्या इन बच्चो को पता होगा कि उसके माँ - बाप ने  किस तरह 42 -44 डिग्री की तेज धूप  की परवाह करते हुए  दिन - रात उनके जीवन को बचाया , उनकी  रक्षा की।