Sunday 25 August 2013

बढ़ते कानून बढ़ता भ्रष्टाचार


मेरा यह मानना है कि  जितने ज्यादा कानून बनाये जाते हैं उतना ही ज्यादा भ्रष्टाचार बढ़ता है। ज्यो - ज्यो हम नए - नए कानून बनाते हैं त्यों - त्यों ही उस कानून को पालन करवाने  वालो की मुस्कान बढ़ जाती है , जेब गर्म करवाने का नया हथियार मिल जाता है। इतने कानून हैं कि  अगर कोई बच  के निकलना चाहे तो भी नहीं निकल सकता। इतने सारे कानूनों का चक्रव्यूह है अगर आप एक से निकलने की कोशिश करेंगे तो दुसरे में फंस जायेंगे। मैंने यह महसूस किया है कि   इसमें  सबसे ज्यादा फंसता है बिजिनेसमैन। इस बात को वही  समझ सकता है जो बिजिनेस कर रहा है। सरकार ने एक बिजिनेसमैन के लिए जो कि अपनी छोटी सी भी फैक्ट्री चलाना चाहता है, उसके लिए  इतने कानून बना रखे हैं कि बिना रिश्वत दिए वह बिजिनेस चला ही नहीं सकता। चलने ही नहीं देंगे यह कानून के पालनकर्ता। कभी ESI का इंस्पेक्टर तो कभी PF का इंस्पेक्टर, कभी लेबर लॉ का ,कभी फैक्ट्री एक्ट का ,कभी POLLUTION का या फिर फायर बिग्रेड का, सेल्स टैक्स , सर्विस टैक्स , इनकम  टैक्स और न जाने कितने टैक्स और कितने डिपार्टमेंट पहुँच जाते हैं कानून के पैरोकार बन कर। निपटो आप कितनो से निपटोगे यही आप को निपटा देंगे।
इन सब कानूनों का दर्द तो वह बिजिनेसमैन ही समझ सकता है जो बिजिनेस कर रहा है इन कानून के रखवालो का क्या , इन्हें तो अपनी कमाई  से मतलब होता है।
कुछ समय पहले की बात है एक दिन  मेरे एक मित्र का अमेरिका से फोन आया। बहुत सारी वहां की विशेषताओ  के बारे में बताने लगा बाद में  विशेष रूप से बताने लगा कि यहाँ अमेरिका में अगर कोई यह कहे कि उसने रिश्वत दे कर अपने आप को बचा लिया तो वह झूठ बोलता है वैसे ही हिंदुस्तान में कोई यह कहे कि वह वगैर रिश्वत दिए बच  गया तो वह भी झूठ बोलता है।
मुझे उसकी यह बात बहुत अच्छी लगी। एक कटु सत्य उसने कहा था।
कुछ समय पहले मै एक फैक्ट्री के ड्राइवर के  पेमेंट वाउचर चेक कर रहा था। TV  बनाने की कम्पनी थी उनके अपने दो ट्रक थे जिससे कम्पनी के टीवी और दूसरे प्रोडक्ट  डिस्ट्रीब्यूटर  के पास भेजे जाते थे। उन वाउचरो में कुछ एक  वाउचर  ट्रैफिक  चालान   के थे, जो कि कुछ इस तरह से थे , पहला चालान था गाड़ी में N/P यानि कि नेशनल परमिट आधा लाल और आधा नीले रंग के गोल सर्किल में नहीं लिखा था। इस कारण चालान  किया गया था।
दूसरा चालान हॉर्न बजाने  के लिए हाथ से भोपू बजाने वाला नहीं था पता लगा प्रेशर हॉर्न मना है। मैंने ड्राइवर से पूछा क्यों नहीं रखते हो, वोला साहब कई बार खरीद चुके हैं रात में गाड़ी कही कड़ी कर दी तो सुबह गायब मिलता है।
तीसरा चालान गाड़ी पर कम्पनी ने अपने टीवी का स्लोगन लिखा हुआ था इसलिये किया गया था।
चौथा चालान गाड़ी में दूसरा ड्राइवर रात के सफ़र में जरुरी है इसलिए था।
इसी तरह के कुछ अन्य   चालान  लगे थे। मतलब यह कि अगर ट्रैफिक पुलिस ने एक बार हाथ दे कर रोक लिया तो बिना चालान कटाये या वगैर कुछ लिए - दिए बच  नहीं सकते।
यह तो एक छोटा सा उदहारण दिया अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए  अन्यथा यह बात तो सभी समझते हैं किस तरह से कानूनों का पालन करवाते हैं यह लोग।
एक कम्पनी की एक्सपोर्ट शिपमेंट जा रही थी। बिल के ऊपर कम्पनी का सेल्स टैक्स नम्बर  नहीं लिखा था। माल पकड़ गया। दो अब हर्जाना, वह भी हजारो में।
एक कम्पनी ने बिल पर सेल्स टैक्स नम्बर  तो लिखा पर एड्रेस रजिस्टर्ड आफिस का लिख दिया, फैक्ट्री जहाँ से माल बन कर एक्सपोर्ट के लिए जा रहा था , नहीं लिखा, अब दो जुर्माना। छोटी - छोटी सी गलतियों को सुधरवाया भी जा सकता है पर नहीं। अगर ऐसा किया तो हजारो - लाखो के वारे - न्यारे कैसे होंगे।
यह एक ऐसी टीस  है जो हर बिजिनेसमैन  को झेलनी पड़ती है।
ऐसे - ऐसे आफिसर है जो आते ही कहते हैं हमने लाखो रूपये दे कर अपना ट्रांसफर करवाया है। कमाने के लिए आये हैं।
नीचे से लेकर ऊपर तक व्यवस्था ही ऐसी बन गई है। जिसको बदलना नामुमकिन ही है।
आज ही दैनिक जागरण में खबर छपी है। दुसरे पेज पर हेडिंग है " दिल्ली का हर आदमी देता है सालाना 16  हजार घूस"
अभी कुछ दिन पहले फायर बिग्रेड के इंस्पेक्टर से बात हो रही थी, बताने लगे बीस पॉइंट वह चेक करते हैं तब आपको फायर सर्टिफिकेट मिलेगा तब जा कर फैक्ट्री चला सकते हैं।
लो कर लो बात।
 मैंने कहा ऐसा क्यों, कहने लगे वर्कर की , फैक्ट्री की सेफ्टी का सवाल है। मन ही मन सोंचा  और जो सरकारी आफिसो में आग लगती रहती है उसका क्या तब यह बीस पॉइंट कहाँ जाते हैं।
जहाँ जाओ वहीँ यही देखने को मिलता है कि पहले कानून का हौवा दिखाया जाता है फिर लेने- देने की बात के साथ निपटारा करने की बात शुरू हो जाती है।
टाटा टी के विज्ञापन में अक्सर देखने को मिलता है कि वह भी इस भ्रष्टतंत्र से त्रस्त हैं। इसलिए अपने विज्ञापन के माध्यम से अपनी बात कह रहे हैं।
अभी कुछ दिन पहले मै मोहन नगर से दिलशाद गार्डन , दिल्ली बार्डर जाने के लिए सवारी टैम्पू पर बैठा। उसने मुझे बार्डर से कुछ पहले ही उतार दिया।  मैंने उससे  कहा कुछ टैम्पू तो आगे उतार रहे हैं , तुम पहले क्यों उतार रहे हो, बोला वह लोग तीन हजार रुपया महिना देते हैं हम  चक्कर के हिसाब से देते हैं इसलिए आगे नहीं जा सकते।
मन में आया क्या करेगा अन्ना  हजारे  का लोकपाल यहाँ पर। हर  तरफ तो गोल माल है। 

Monday 5 August 2013

जो जस करहि सो तस फल चाखा


                                                   कर्म प्रधान विश्व रचि राखा । 
                                                  जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥ 
                                                  सकल पदारथ हैं जग मांही। 
                                                  कर्महीन नर पावत नाहीं ॥ 


कर्मण्ये वा धिकारस्ते
महाफलेषु कदाचन
परित्राणाय साधुनाम्
विनाशाय च दुष्क्रताकर्मण्ये वा धिकारस्ते 

बात शुरू करता हूँ मनुष्य के जीवन में कर्म की प्रधानता से। चाहें रामचरित मानस हो या गीता, दोनों में ही कर्म को ही प्रधान बताया गया है। हम अपने कर्मो से ही अपने भाग्य को बनाते और बिगाड़ते हैं। हमें कर्म के आधार पर ही उसका फल प्राप्त होता है। कर्म सिर्फ शरीर की क्रियाओं से ही संपन्न नहीं होता बल्कि मन से, विचारों से एवं भावनाओं से भी कर्म संपन्न होता है। जीवन - भरण के लिए किया गया कर्म ही कर्म नहीं है।  बल्कि हम जो आचार , व्यवहार अपने माता -पिता, बन्धु ,मित्र , रिश्तेदार के साथ करते हैं वह भी कर्म की श्रेणी में आता है। 
जब हम अच्छे कर्म करते हैं तब उसका प्रतिफल भी अच्छा  मिलता है और जब हम कुछ  गलत  कर देते हैं तब प्रतिफल में हमें भी कष्ट मिलते हैं। 
महाभारत एक महान ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ हमें कर्म करने की प्रेरणा देता है। महाभारत में युद्ध शुरू होने से पहले भगवान 
कृष्ण ने  अर्जुन को जो ज्ञान  दिया उसमे भी उन्होंने कर्म करने के लिए ही अर्जुन को प्रेरित किया है। दूसरी विशेष बात यह कि अगर आपको फल चाहिए तो आपको ही कर्म करना होगा। भगवान कृष्ण पांडवो के साथ थे परन्तु उन्होंने कहा कि मै नहीं लडूगा। सीधी से बात है तुम्हारी लड़ाई है तुम्हे लड़नी होगी क्योकि फल भी तो तुम्हे ही चाहिए फिर दूसरा क्यों लड़े। चूँकि पांडव धर्म की लड़ाई लड़ रहे थे इसलिए उनकी जीत हुई। इस अभिमान की लड़ाई में  पांडवो ने कौरवो का परिवार खत्म कर दिया परन्तु देखें विधि का विधान कि पांडवो का भी पूरा परिवार समाप्त हो गया। यह तो भगवान कृष्ण थे जिन्होंने उत्तरा के गर्भ में पल रहे अभिमन्यु के बच्चे को बचा लिया अन्यथा पांडवो के बाद उनका भी नाम लेने वाला कोई नहीं बचता। बात वहीँ आ जाती है कि उन्होंने अपने भाईयो को खत्म कर उनका परिवार समाप्त किया तो इसका दंड उनको भी मिला। 
एक दूसरा उदहारण, कहते हैं कि जब मोहम्मद गजनवी ने सोमनाथ के मंदिर पर आक्रमण किया तब कई हिन्दू राजाओ की सेना उसे बचाने के लिए वहां पर पहुँच गई पर पंडितो के अंधविश्वास के कारण ही मोहम्मद गजनवी ने मंदिर को लुटा और नष्ट कर दिया। बताते हैं पंडितो को विशवास था कि अगर गजनवी ने आक्रमण किया तो भगवान् शिव अपना तीसरा नेत्र खोल कर उसको भस्म कर देंगे। बात वहीँ  आ जाती है कि तुमने उनका मंदिर बना कर उन्हें वहां बैठाया है तुम उससे लड़ो, भगवान् शिव क्यों उससे लड़ने के लिए आयेंगे। 

अब बात करता हूँ वर्तमान की। आफिस से घर जाते समय अक्सर देखता हूँ बाजार में  सबसे ज्यादा भीड़ नजर आती है केमिस्ट की दुकान पर। ऐसा लगता है मुफ्त राशन की दुकान हो। किसी भी दूकान पर इतनी भीड़ नहीं नजर आती है जितनी केमिस्ट की दुकानों पर।   केमिस्ट शाप परहमेशा लोगो की भीड़ देखता हूँ। क्यों,  सोंचे , सब कर्मो का फल है। अपने एक दोस्त के यहाँ गया, पता लगा उनकी मां के घुटने का आपरेशन हुआ है। मैंने पूछा  आपने उन्हें गवार पाठा क्यों नहीं खिलाया, आपरेशन  की जरुरत ही नहीं पड़ती, मै तो आपको बता के गया था कि तीन महीने खिला दो, घुटना सही हो जायेगा। बेकार में हजारो रूपये खर्च हुए और शरीर की पीड़ा अलग से, बोले अरे क्या है यह देखो एक लाख रूपये वसूल लिए एक से हैं। यह है आज की मानसिकता। पूरा परिवार बीमार पड़ जाये खुद अस्पताल में एडमिट हों, डाक्टर और दवाइयों पर हजारो - लाखो रूपये खर्च हो जाय पर छल -कपट, हेरा-फेरी कर के धन कमाने से बाज नहीं आयेंगे। 
प्रश्न उठता है क्यों लोग इतना बीमार हैं। सब कर्मो का खेल है। यह यूँ ही नहीं बीमार है। इनके कर्मो ने इन्हें बीमार किया है। शरीर में जितनी भी बीमारियाँ होती है यह सब कर्मो का प्रतिफल होती हैं। लेकिन कोई नहीं सोंचता कि यह सब उनके कर्मो की देन है फिर भी लगे रहते हैं वन टू का फॉर करने के चक्कर में। हेराफेरी करके कमाने के चक्कर में। इन्हें उस बईमानी  की कमाई  में ही स्वाद नजर आता है। भ्रष्ट तरीके से की गई कमाई में जो स्वाद  इन्हें प्राप्त होता है वह ईमानदारी की कमाई में इन्हें नजर नहीं आता। चाहे कितने भी शारीरिक कष्ट . बीमारियाँ  इन्हें , इनके परिवार को उठाना पड़े पर यह समझ में नहीं आता कि यह सारे कष्ट इस बेईमानी की कमाई के कारण ही हो रहे हैं। 

इंसान अगर सच्चाई, ईमानदारी से जीवन जिए तो उसे इतने शारीरिक कष्ट ही न हों। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता। लोगो से कहता हूँ एक बार मनसा वाचा कर्मणा से सच्चाई के रास्ते  पर चल कर देखो स्ववं आभास हो जायेगा। 

छोटे राज्यों की मांग क्यो


केंद्र सरकार  के  एक और राज्य तेलांगना पर मुहर लगाते ही अन्य छुट भैय्यो नेताओ ने अन्य राज्यों के टुकड़े करने के लिए मोर्चा खोल दिया है  वैसे  इस खेल में कई बड़ी - बड़ी राजनीतिक  पार्टियां भी  अपनी रोटी सेकती नजर रही  हैं। क्योकि अंत में तो सत्ता तो इन्ही के पास आनी है। 
 सोंचने की बात है कि छोटे - छोटे राज्यों की मांग का रहस्य क्या है। छोटे - छोटे राज्य यानि कि  अधिक से अधिक लोगो के हाथ में सत्ता का सुख। बड़े राज्य होने पर सत्ता का आनन्द  कम लोगो को मिल पाता  है वहीँ  छोटे - छोटे राज्य होंगे तो यही सुख अन्य लोगो को मिल सकता है। 
कुछ एक राजनितिक पार्टियाँ का यहाँ कहना कि  छोटे राज्य होंगे तो राज्य का  विकास  अधिक  होगा। यह केवल एक कपोल कल्पना है जिसे कि जनता को बेबकूफ  बनाने के लिए प्रयोग में लाते हैं। 
हर नेता मुख्यमंत्री पद का स्वाद चखना चाहता है, जो कि केंद्रीय मंत्री से कही ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, अगर ऐसा नहीं होता तो ममता बनर्जी रेल मंत्री का पद त्याग कर मुख्य मंत्री बनना नहीं पसंद करती। 
बहुत दिनों से चौधरी अजित सिंह अलग हरित प्रदेश की मांग कर रहे है। क्यों कर रहे हैं क्योकि जानते हैं कि उनकी पार्टी कभी  भी उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार  नहीं बना सकती।  हाँ अगर उनके मन मुताबिक थोड़े से जिलो  को जोड़ कर अगर एक छोटा सा  राज्य बना दिया जाय तो शायद मुख्यमंत्री  बनने का सपना साकार हो जाय। 
न्यूज पेपर में खबर छपी " बलिदान के लिए तैयार रहे:  अजित " आम बेबकूफ  लोगो को भ्रमित  करके उनको बलिदान के लिए तैयार रहने की बात की जा रही है। 
लोगो से क्यों बलिदान करने को कह रहे हो, पहले खुद दो , लेकिन नहीं, अगर इन्होने बलिदान दे दिया फिर सत्ता का सुख फिर इन्हें कैसे मिलेगा।   तभी दूसरो  को प्रेरित कर रहे हैं। यह हुई बात। 
कुछ ऐसी ही गणित अन्य राज्यों के नेता भी लगाये रहते हैं। 

 जनता को क्या मिलता है? कुछ भी तो नहीं, उल्टे  परेशानी और बढ़ जाती है। बार्डर पर चेकिंग,  सामान लाने, ले जाने की अलग से मुसीबत। सबसे ज्यादा तो राज्य के  बार्डर  के आस -पास रहने वालो को झेलनी पड़ती है। सबसे बड़ी बात कि इन राज्यों का खर्च तो जनता को ही भुगतना पड़ता है। 
मुझे याद है , उत्तराखंड बनाने के लिए क्या कुछ नहीं किया इन उत्तराखंड के लोगो ने। मुरादाबाद चौराहा कांड तो कभी भी इन लोगो के जेहन से कभी  नहीं निकलेगा। कैसे भूल सकते हैं ,  मुलायम सरकार  ने जो इन पर कहर बरपाया था। पर क्या मिला इन उत्तराखंड के लोगो को। अच्छा उत्तराखंड अलग बना कर भी क्या हासिल कर लिया उत्तराखंड के लोगो ने। आज भी हजारो की संख्या में वहां के लोग पलायन करके दिल्ली और अन्य  नगरो में जीवका उपार्जन के लिए आ रहे हैं। लाखो वहां के लोग यहाँ रह रहे हैं।  वापस तो अपने राज्य चले नहीं गए, फिर यह सब क्यों? जहाँ तक विकास की बात है तो यह सब एक ढोंग है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। 
कभी बीजेपी की सरकार तो कभी कांग्रेस की सरकार वहां पर बनती है। जिन लोगो ने अलग उत्तराखंड के लिए संघर्ष किया उनकी तो आज तक वहां सरकार नहीं बनी। लेकिन कौन समझाए इन बेबकूफ लोगो को जो इन नेताओ के बहकावे में आकर आत्मदाह कर लेते हैं। सरकारी सम्पतियो को आग के हवाले कर देते है, और पुलिस की लाठियां खाते हैं।  और बाद में इनके हिस्से में आता है टैक्स का बोझ।