Monday, 20 May 2013

दिल्ली मेरी दिल्ली


आज बहुत दिनों के बाद  पुराने लोहे वाले पुल से चांदनी चौक जा रहा था। दिल्ली की तरफ से आने वाला मार्ग पुलिस ने अवरुद्ध किया हुआ था। काफी बड़ी संख्या में पुलिस गारद वहां पर थी। लोग रुक कर माजरा समझने की कोशिस कर रहे थे। इस कारण पुल पर काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। ट्रैफिक जाम हो रहा था , मै वगैर रुके अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया। 
पुल से नीचे यमुना का जल  काले से रंग  का दिख रहा था। आज से ३२  साल पहले जब मै दिल्ली आया था तब यमुना के पुल से गुजरते हुए  पहली बार यमुना का काले से रंग के  जल को  जल देखा था तब बचपन में पढ़ी भगवान्  कृष्ण की कालिया नाग मर्दन की कथा याद हो आई थी। जिसमे बताया गया था कि कालिया नाग के जहर से यमुना का पानी भी काला हो गया था। देख कर लगा कालिया नाग तो चला गया पर लगता है अपना जहर छोड़ गया जिससे अभी तक यमुना का जल काला दिख रहा है। 
आज भी चांदनी चौक में वैसा ही भीड़ - भाड  थी जैसी कि आज से ३२  साल पहले जब मै दिल्ली आया था तब होती थी। उस समय मेरा आफिस फतेहपुरी के पास था और मुझे एक कंपनी के आडिट  के लिए  अक्सर  भागीरथ पैलस जाना होता था। मै यह दूरी पैदल ही तय करना पसंद करता था आस - पास के नजारों , दुकानों को देखता हुआ । 
फतेहपुरी के पास एक कुल्फी - फालूदा वाले की दूकान थी, देखता था वहां पर लोग लाइन में लग कर कुल्फी - फालूदा खरीदते थे। मुझे यहाँ यह देख कर आश्चर्य होता था कि लोग पैसे देकर खरीदने के लिए भी लाइन में लगे हुए है जैसे लोग मुफ्त में लेने के लिए लाइन में खड़े होते हैं, मै इस तरह लाइन में खड़े होकर खाने के समान को खरीदना अपनी शान के खिलाफ समझता था। इसलिए मैंने कभी भी उससे कुल्फी - फालूदा नहीं ख़रीदा। लेकिन यह दिल्ली है यहाँ पर लोग खाने - पीने  के बहुत शौक़ीन होते हैं। टाउनहाल के पास एक कंचे वाले सोडे वाले की दुकान थी वहां पर भी खूब भीड़ लगती थी। 
फतेहपुरी से आगे , भागीरथ पैलेस से पहले सेन्ट्रल बैंक बिल्डिंग है, यहाँ के दही - भल्ले बहुत प्रसिद्द थे। वहां पर भी दही - भल्ले खाने वालो की भीड़ लगी रहती थी। वहां से गुजरते हुए अक्सर देखता था कुछ गरीब बच्चे, लोगो द्वारा दही - भल्ले खाकर फेके गए दोनों को चाट रहे होते थे। यह देख बचपन में पढ़ी  हुई पंक्तिया याद हो आती   थी लपक चाटते झूठे पत्ते जिस दिन देखा मैंने नर को, उस दिन सोचा क्यों न लगा दूं, आज आग इस दुनिया भर को'  " 
.आज यहाँ आकर वही सारी  पुरानी बाते ताजा  हो गई थी। 
दिल्ली भी अपने आप में बहुत सारी ख़ासियत लिए हुए है। कभी किसी के साथ दुराव नहीं करती। देश के हर राज्य के लोग यहाँ रह रहे है। सबको रोजी - रोटी देती है पर किसी से यह नहीं कहती तुम मेरी दिल्ली की भाषा बोलो। जिस चाहे जैसे चाहे भाषा में बात करे या रहे उसे कोई एतराज नहीं। 
 जो भी यहाँ आता है  वह यही को होकर रह जाता है। सबके लिए दो वक्त की रोटी की जुगाड़ हो जाती है , कोई भी भूखा यहाँ नहीं सोता।  तभी तो कहते है दिल्ली है दिल वालो की। 
लौटते हुए ४  बजे जब यमुना के लोहे वाले पुल से गुजरा तो सुबह वाली घटना याद हो आई। मैंने जानने की कोशिश की कि सुबह क्यों इतनी पुलिस वहां पर थी। देखता क्या हूँ यमुना के किनारे एक गौशाला बनी हुई थी उसे तहस - नहस करने के लिए पुलिस गारद बुलाई गई थी। इस गौशाला में केवल गाय ही थीं कोई दूध की डेरी  नहीं चलाई जा रही थी। देख रहा था कि इस भरी दोपहर में खुले आसमान के नीचे  खूटे से बंधी हुई उदास सी गाय खड़ी  हुई थीं।  उनका आशियाना उजाड़ दिया गया था। उनकी नाद जिसमे वह खाती थी बुलडोजर ने मिटटी से मिला दिया था।  मूक - निरीह प्राणी को देख ह्रदय करुणा से भर आया। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वह अपनी निर्विकार आँखों से कुछ ढूंढ़  रही है कुछ कह रही हैं।  
मन में विचार  आया कि कितनी आसानी से सरकार ने इनके आशियाने को उजाड़ दिया  क्योकि सरकार को इनका वोट नहीं मिलेगा , इन्हें वोट देने का अधिकार नहीं है यह किसी भी पार्टी को वोट दे कर जीता नहीं सकती। यह वही गाय है जिसे हिन्दू माता बुलाता है। घर में पहली रोटी गाय के लिए निकल कर ही खाना खाता है। वह हमसे कुछ लेती नहीं केवल देती ही है। हम उसे  अनाज का भूसा खाने को देते हैं क्योकि वह भूसा हम नहीं खा सकते और बदले में वह हमें दूध देती है। कितनी कृत्घन है यह सरकार कि हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी सुभाष पार्क की मस्जिद को नहीं तोड़ पाई जो कि किसी का आशियाना नहीं है पर जिन्दा जानवरों के खाने की नाद तक को तोड़ देती है।  

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