उत्तराखण्ड और प्राकृतिक आपदा
इस बार उत्तराखण्ड में जिस तरह से प्रकृति की विभिषका देखने को मिली, देखकर बहुत कष्ट हुआ। एक तरह से देखा जाय तो मन बैचैन हो उठा। मुझे याद है कुछ इसी तरह बाढ़ का प्रकोप 2010 में भी हुआ था। तब भी न्यूज चैनल लगातार वहां की खबरे दे रहे थे। तरह - तरह की अटकले लगा रहे थे। उस समय भी ऋषीकेश में परमार्थ निकेतन के सामने गंगा के बीच लगी भगवान शिव की प्रतिमा बाढ़ में बह गई थी।
धीरे - धीरे बाढ़ की विभिषका शांत हुई और जन-जीवन सामान्य होने लगा। तब मैंने अपनी केदारनाथ - बदरीनाथ धाम यात्रा की थी। रास्ते में जो कुछ देखा उसका वर्णन अपने लेख में किया था। प्रस्तुत है लेख के कुछ अंश।
मेरी केदारनाथ - बदरीनाथ धाम जाने की इच्छा थी जो कि सितम्बर के अंत में दशहरे पर जा कर पूरी हुई। दशहरे वाले दिन मै अपने परिवार के साथ पहले केदारनाथ के लिए चल दिया। इससे पहले कभी भी ऋषीकेश से आगे नहीं गया था। अत: ध्यान से आसपास की प्राकृतिक छटा , और सड़क किनारे बहती गंगा को निहारते हुए आगे बढ रहा था।कुछ जगहो पर बादल फटने से पूरा का पूरा गाँव ही बह गया
था.
अधिक
बारिश
के
कारण
सड़को
की
हालत
काफ़ी
खराब
हो
गयी
थी.
सड़क
के
किनारे
पहाड़ो
को
देख
कर
लग
रहा
था
पहाड़
बाढ़
के
पानी
से
नहाए
हुए
हैं.
पेड़
उखड़े
पड़े
थे.
पहाड़
धूल
मिट्टी
से
अटे
हुए
थे. श्रीनगर पहुँचते हुए देखा गंगा पर कई सारी विद्धुत परियोजनाओं पर काम चल रहा था। कुछ
स्थानो
पर
देखता
हूँ
लबालब
पानी
से
भरी
हुई
गंगा
बह
रही
है
और
कुछ
स्थानो
पर
गंगा
मे
बहुत
कम
पानी
नज़र
आता
था.
ऐसा
लगता
था
किसी
ने
पानी
चुरा
लिया
हो.
केदारनाथ से बद्रीनाथ धाम जाते समय
चमोली
से कुछ आगे ही सड़क के किनारे अलकनंदा पर कुछ अन्य विद्धुत परियोजनाओं
पर काम चल रहा था. जोशीमठ से आगे बढ़ते ही हमें सड़क के किनारे JAYPEE के लगे हुए सैकड़ों बोर्ड नज़र आने लगे. हर एक बोर्ड पर बड़ा-बड़ा.” NO DREAM TOO BIG" JAYPEE लिखा
हुआ था. ऐसा लग रहा था अब
हम किसी की प्राइवेट एस्टेट में से होकर गुजर रहे है. ज्यों-ज्यों हम विष्णु प्रयाग
की ओर बढ़ रहे थे अलकनंदा में जल कम होता जा रहा था. विष्णुप्रयाग के पास तो
अलकनंदा मे जल ही नहीं नज़र आ रहा था. विष्णुप्रयाग पहुँचने पर पता लगा की यहाँ
पर JAYPEE ने
अपनी विद्धुत परियोजना लगाई हुई है. इस कारण अलकनंदा का जल विष्णु प्रयाग में रोक रखा
था. चारों ओर JAYPEE के
बोर्ड लगे थे . ऐसा लग रहा था कि हम पर ठठाकर हँस रहा है और कह रहा है कि देखो किस
तरह हम प्रकृति का दोहन कर के इतने बड़े हो गये है और तुम ? अफ़सोस कि यह लोग हम सबकी इस जल
संपदा का दोहन कर के हमें ही चिढ़ा रहे है. इन्ही विचारों को लिए हुए हम बद्रीनाथ
धाम पहुँच गये.
इसी तरह बद्रीनाथ से लौटते समय श्रीनगर से कुछ पहले पहाड़ से लगातार पत्थर सड़क पर गिरने के कारण रास्ता बंद कर दिया गया था। सभी वाहन दूसरे गाँव के रास्ते से होकर गुजर रहे थे।
देखा विशालकाय पहाड़ों को सीढ़ी नुमा काट कर खेती की जा रही थी. इतने विशालकाय पहाड़ थे जिनकी चोटी तक पहुचने की कल्पना भी आम आदमी से नहीं की जा सकती। वहां पर नीचे से लेकर ऊपर चोटी तक खेती की जा रही थी. .इस रास्ते पर पेड़ बहुत कम थे.
वैसे भी जब पहाड़ों को काट-काट कर खेती की जाएगी तो पेड़ तो बचेंगे कहाँ से?
कोई बड़ी बात नही कि पेड़ों की जगह खेती करने से यहाँ भू-स्खलन ज़्यादा होता है.
मुझे लगता है कि इस तरह पहाड़ों को काट कर खेती करना और पहाड़ों मे सुरंग बना
कर बाँध बनाना भी भू-स्खलन का बड़ा कारण है.
वहां से लौटने के बाद मै अपने एक पहाड़ी मित्र जो कि पिथौरागढ़ का है , से इसी विषय पर चर्चा कर रहा था। मैंने कहा तुम लोगो ने कोई भी पहाड़ नहीं छोड़ा जहाँ खेती न कर रहे हो। जब इस तरह से सारे पहाड़ खेतो में तब्दील हो जायेंगे तब प्राकृतिक असुंतलन तो होगा ही। अरे खेती करने के लिए भगवान् के समतल जमीन भी बनाई वहां खेती करो। पहाड़ो को क्यों काट कर बर्बाद कर रहे हो।
दूसरी बड़ी बात यह कि जिस तरह से सरकार ने अपने निजी स्वार्थ के लिए सैकड़ो विद्दुत परियोजनाओ को मंजूरी दी है। यह लोग पहाड़ो में सुरंग बना रहे हैं उन्हें खोखला कर रहे हैं। सुरंग बनाने के लिए उन्हें विस्फोट करना पड़ता है।
यहाँ पर यह सोंचने की बात है, जब एक हवाई जहाज के टकराने मात्र से अमेरिका की इतनी विशाल काय बिल्डिंग ढह गई फिर यह लोग तो एक ही पहाड़ पर कितने ही विस्फोट करते है, पूरा का पूरा पहाड़ ही इन विस्फोटो से हिल जाता होगा तब कही न कही तो इसका प्रतिफल देखने को मिलेगा ही।
अभी 25 जून के दैनिक जागरण में डॉ। भरत झुनझुनवाला का लेख पद रहा था। उन्होंने लिखा है " अवैध खनन, अतिक्रमण और जल विददुत परियोजनाएं इस विभिषका के कारण है। इन परियोजनाओ में घूस वसूलने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं। जानकार बताते हैं कि जल विददुत परियोजनाओ का अनुबंध दस्तखत करने का मंत्रिगण एक करोड़ रूपये प्रति मेगावाट लेते हैं। उत्तराखण्ड में 40,000 मेगावाट की संभावना को देखते हुए घूस की इस विशाल राशि अनुमान लगाया जा सकता है। "
अगर ऐसा है तो यह कितने अफ़सोस की बात है कि हम अपने स्वार्थ के लिए कितने लोगो की जिन्दगी के साथ खिलवाड़ करते हैं।
कुल मिलाकर सार यही है कि प्रकृति से की गई छेड -छाड़ का नतीजा किसी न किसी को तो भुगतना ही पड़ेगा।
कुल मिलाकर सार यही है कि प्रकृति से की गई छेड -छाड़ का नतीजा किसी न किसी को तो भुगतना ही पड़ेगा।
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