अक्सर देखने
में
आता
है
कि
लोग
नौकरी
मिलते
ही अतिरेक कर्तव्य
निष्ठां
का
परिचय
देने
लगते हैं। उन्हें
यह
याद
ही
नहीं
रहता
है
कि
हम
भी
इसी
का
एक
हिस्सा
हैं। पहले बात
करता
हूँ
कि
किस
तरह
से
विदेशो
में
अधिकारी
लोग
आम
लोगो
के
साथ
व्यवहार
करते
हैं। फिर बात
करूँगा
अपने
लोगो
की ।
बात है
1975-76 की जब मै पढाई कर रहा था। हमारे इंग्लिश के लेक्चरार एक घटना के बारे में बताने लगे। उनके कोई रिश्तेदार लन्दन में थे। वहां पर ट्रेन से सफ़र कर रहे थे। प्लेटफार्म से बाहर निकलते समय टी टी ने उनसे टिकट माँगा। हड़बड़ी में उन्हें ध्यान नहीं रहा कि टिकट कहाँ रखा है। वह जल्दी - जल्दी अपनी जेबें टटोल रहे थे। लेकिन उन्हें ध्यान नहीं आ रहा था कि टिकट रखा कहाँ है। टी टी उनकी घबड़ाहट देख उनसे बोला,
आपने
टिकट
लिया
था।
उन्होंने
विश्वास
से कहा
हाँ
मैंने
टिकट
ख़रीदा
था
पर
इस
समय
मुझे
याद
नहीं
आ
रहा
है
कि
मैंने
अपनी
किस
जेब
में
रख
दिया।
मै
अभी
आपको
ढूंड
कर
देता
हूँ। टी टी
बोला ठीक है
फिर
आप
जाइये।
वह
सज्जन
गेट
से
बाहर
आये, पर उनका
मन
नहीं
माना, वह अपने
सामान
में
टिकट
ढूढने
लगे।
आखिरकार
उन्हें
टिकट
मिल
गया।
वह
ख़ुशी
- ख़ुशी टी टी को टिकट दिखाने पहुँचे,
बोले
मैंने
टिकट
दूसरी
जगह
रख
दिया
था
इसलिए
नहीं
मिल
रहा
था।
अब
मिल
गया है , आप चेक कर सकते हैं। टी टी बोला मुझे विश्वास हो
गया
था
कि
आपने
टिकट लिया है इसलिए हि मैंने आपको जाने के लिए बोल था फिर क्यों आप अपना और
मेरा कीमती समय खराब कर रहे हैं।
यह घटना है लन्दन की अब बताता
हूँ अपने हिन्दुस्तान की।
हरिद्धार का टिकट (मात्र 33 रु
का) लिया और ट्रेन का इन्तजार करने लगा। जैसा कि ज्यादातर भारतीय सवारी वाली रेल
आधा-पौना घन्टा लेट आती ही है,
यह उस दिन भी आयी थी।
रात को लगभग नौ बजे ट्रेन हरिद्धार
स्टेशन पर जा पहुँची थी। सभी सवारियों में जल्दी उतरने की होड सी लगी हुई थी। मैं
जब स्टेशन से बाहर निकल रहा था तो किसी ने मुझे नहीं टोका, लेकिन
लगभग दस मीटर जाने के बाद टी.टी ने मेरा हाथ पकड लिया,
मैंने अपना हाथ झटक कर टी.टी से छुडाया और उससे बोला क्या हुआ? मेरा
हाथ क्यों पकडा? टी.टी ने कहा कि पहले टिकट दिखाऒ! उसके बाद बाकि बात बताऊँगा। मैंने
कहा क्यों यह सारी जनता आ रही है इनका टिकट क्यों नहीं देखते? मेरा
टिकट देखने पर ही क्यों तुले हो? मैं उससे बात कर रहा था, साथ
ही अपने बैग में से टिकट तलाश कर रहा था, उस समय टिकट भी कमबख्त पता नहीं किधर
सरक गया था। जब मुझे टिकट टटोलते हुए पूरा एक मिनट से ज्यादा हो गया तो टी.टी मुझे
अन्दर एक कमरे में ले गया और बोला अब निकालो अपना टिकट, मैं
टिकट तलाशता रहा, टी.टी बुदबुदाता/बडबडाता रहा कि पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते है? टिकट
लेते नहीं और तेज-तेज चलकर बचना चाह रहा था। अब चलेगा पता जब जेल में जायेगा।
जेल का नाम सुनकर पसीना आने लगा। टी.टी
को यह पक्का विश्वास हो चला था कि मेरे पास टिकट नहीं है, जिस
कारण उसने अन्य यात्रियों के टिकट भी चैक नहीं किये थे और मेरे पास जमकर खडा था। मैंने अपना सारा सामान बैग से बाहर निकाल दिया। मेरा
टिकट एक पतलून की तह में घुस गया था। जब मैने अपने कपडॆ छाडने शुरु किये तो वो
टिकट छिटक कर दूर जा गिरा था। टिकट देख मैंने बडी राहत की साँस ली थी। अन्दर जाने
के बाद अब जाकर मेरे चेहरे पर खुशी आई थी। टिकट देख कर टी.टी की बोलती बन्द हो
चुकी थी। फ़िर भी खिसयानी बिल्ली की तरह उसने कहा कि मेरा आधा घन्टा खराब कर दिया, तुम्हे
टिकट ऊपर वाली जेब में रखना चाहिए। अगर मेरा टिकट नहीं मिलता तो उस दिन वो टी.टी
मुझे जेल भिजवा कर ही दम लेता।
उपरोक्त घटना मेरे एक परिचित के साथ घटित हुई थी।
अभी कुछ दिन पहले की बात है मै शाम 7 बजे
सेक्टर 11, नॉएडा आफिस से अपने घर जा रहा था। सुबह आफिस आते समय रास्ते
में मैंने 2 किलो अनार ख़रीदे थे जोकि मेरी मोटर साइकल पर एक थैले में रखे
हुए थे। अभी आफिस से निकला ही था कि दो पुलिस वालो ने रोक लिया। मेने पूछा क्या
बात है ? क्यों रोक रहे हो ? बोले थैले में क्या ले जा रहे हो? मैंने कहा अनार हैं। ले जाना
मना है क्या? तब तक दूसरा पुलिस वाला थैले को टटोलता हुआ बोला ओहो लगता है आलू हैं। मैंने कहा
आलू नहीं अनार हैं चाहिए क्या आप लोगो को ? तभी एक और मोटर
साइकल सवार पहुँच गया जिसके पास काफी सारा सामान लदा था, दोनों
ने लपक कर उसको रोक लिया और मुझसे बोले आप जाओ।
ऐसे ही एक दिन और आफिस से घर जा रहा
था। स्कूटर में लंच बॉक्स लटका हुआ था। यू पी बार्डर पार कर थोडा सा आगे ही बढ़ा था
तभी एक पुलिस वाला अपने स्कूटर से पीछा करता हुआ मेरे पास आ कर पूछने लगा इसमें
क्या है।मैंने कहा लंच बाक्स है पर इस समय खाली है। यह सुनकर हो-हो कर
हँसते हुआ बोल अब तो डिनर टाइम हो रहा है और अपना स्कूटर मोड़ कर चला
गया।
इस तरह की घटनाए हर एक के साथ होती रहती हैं। लेकिन यह सोंचने के लिए मजबूर कर देती है कि हम कितने असंवेदनशील हो गए हैं। हर समय अपने स्वार्थ के बारे में सोंचते रहते हैं। मानवीय मूल्यों का किस कदर ह्रास हो गया है। यही है आज की पीड़ा ।
जब तक नौकरी नहीं मिलती है रोज मंदिर, गुरुद्वारे या
दरगाह में जा कर मत्था टेकते हैं और जैसे
ही सरकारी नौकरी मिलती है फिर ऊपरी कमाई के
रास्ते ढूंढने लगते हैं।
याद आती हैं मुंशी प्रेमचंद की
कहानियाँ जोकि आज के यथार्थ
को चरित्रित करती हैं, अनुभव कराती हैं। इस समय भी मुझे याद आ रही है नमक के दरोगा
नामक कहानी, जहाँ लेखक नायक के पिता के मुंह से कहलवाता है " 'नौकरी
में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढावे और
चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी
का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय
बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है।“
लेखक ने बहुत अच्छी - अच्छी बाते इस
कहानी में कहीं और अपनी अन्य कहानियों में भी, पर लगता है ज्यादातर ने इन शब्दों को गाँठ बांध
कर रख लिया है और इसको ही जीवन का ध्येय मान लिया है।
हमारे देश में भ्रष्टाचार इस कदर अधिकतर लोगों की आत्मा में घुल गया है कि जीते जी उनके शरीर से निकलने वाला नहीं है।
ReplyDeleteword verification हटा दीजिए, कमेन्ट करने वालों के लिये परॆशानी होती है। इसके बदले चाहे तो माडरेशन लगा दीजिए।