Wednesday, 3 July 2019

एजेंडा

मैंने पढ़ा था, मीडिया  एक एजेंडा सेट करती है ; और फिर उस पर काम शुरू हो जाता है सरकार को बदनाम करने का ,  परन्तु नहीं ; यह सेट करती हैं कुछ देश द्रोही ताकतें।  मीडिया तो एक मोहरा होता है और फिर शुरू होता है खेल, सोशल मीडिया इस समय सबसे बड़ा माध्यम है इस खेल का । कुछ लोग ऐसी घटनाओं से इतने भावुक हो जात्ते हैं कि उन्हें अपने धर्म पर ही शर्म आने लगती है। 
नेता तो इन्तजार में रहते हैं ऐसे मुद्दों के ,  जिससे वह अपनी अपनी राजनीतक रोटियां सेक सकें । 
 ध्यान से देखें तो पता लगेगा कैसे एक छोटी सी घटना का राष्ट्रीयकरण और अंतर्राष्ट्रीयकरण किया जाता है। 
शुरुआत करते हैं रोहित बेमुला की आत्महत्या से।  यह कोई विशेष घटना नहीं थी।  कई लोग फ्रस्ट्रेशन में ऐसा करते हैं।  क्योकि उनके सपने इतने बड़े होते हैं उन्हें अचीव करना उन्हें असम्भव लगने लगता है और तब वह उठाते हैं ऐसा कदम। 
एक आत्म हत्या का मामला इतना उछाला गया कि सारे बड़े - बड़े नेता हैदराबाद पंहुच गए आंसू बहाने । 
संसद में हंगामा हुआ , केंद्रीय मंत्री पर ऊँगली उठाई गई।  मोदी जी ने भी इस घटना पर एक सभा में आंसू बहा दिये। 
वहीँ  दूसरी तरफ कोटा में हर साल न जाने कितने बच्चे  इसी तरह , फ्रस्ट्रेशन में आत्महत्या कर चुके हैं। 
कोई धरना - प्रदर्शन नहीं हुआ। 
संसद छोड़िये , विधानसभा में भी कोई चर्चा नहीं होती है।  वह एक रोहित बेमुला था , जिसे दलित का दर्जा प्राप्त था ,  यहाँ कोटा में  तो कई बच्चे थे ; परन्तु नहीं , किसी ने भी अफ़सोस जाहिर नहीं किया , किसी ने आंसू नहीं बहाये।  क्यों भाई क्यों ......... ?
अब  चलते हैं कठुआ केस पर , यह घटना 10 जनवरी की थी , लेकिन लगभग दो- तीन महीने बाद लाइम लाइट में यह घटना आई।  अचानक धरना - प्रदर्शन होने शुरू हो गए , इण्डिया गेट पर मोमबत्ती गैंग सक्रिय हो गया।  जस्टिस फॉर आसिफा की तख्ती लिए हुए लोग प्रदर्शन कर रहे थे। 
सवाल यह है कि यह धरना - प्रदर्शन जनवरी में क्यों नहीं हुए , क्यों दो- तीन महीने बाद यह सब शुरू हुआ। 
सवाल यह भी उठता है कि क्या इससे पहले इस तरह की घटनाये नहीं हुईं , जब इससे पहले न जाने कितनी घटनाये हो चुकी हैं तो केवल इस घटना को इतना तूल क्यों दिया गया , क्या इसलिए कि वह एक विशेष समुदाय यानि मुस्लिम से सम्बंधित है। 
अब आता हूँ पिछले दिनों झारखण्ड में ग्रामीणों द्वारा एक चोर के पकडे जाने पर पिटाई की। 
जैसा की आमतौर पर होता है चोर अगर पब्लिक के हाथ पड़ जाये तो हर कोई अपना हाथ उस पर आजमा लेता है।
वही इस केस में हुआ लोंगो ने पिटाई की और बाद में पुलिस को सौंप दिया। 
  एक नहीं हजारो घटनाएं इस तरह की होती रही हैं।  लेकिन इस बार खास बात यह थी कि चोर मुसलमान था और पकड़ने वाले हिन्दू। 
बस बात का बतंगड बना दिया गया। 
संसद में उस चोर की पैरवी करने वाले खड़े हो गए। 
कितनी गंभीर  बात है कि आज लोग एक चोर की पैरवी कर रहे हैं।  कई शहरों में तो उसके हमदर्द पैदा हो गए हैं।  वह जलूस निकाल रहे हैं उस चोर के समर्थन में।  क्योकि वह चोर एक विशेष संप्रदाय का था। कमल है  लाखों रूपये का चढ़ावा चढ़ाया जा रहा है उसके परिवार पर। 
कहां जा रहे हैं हम , कभी हममें से कुछ ,  आतंकवादी के समर्थन में खड़े हो जाते हैं तो कभी एक चोर के समर्थन में। 
यह सब एक अजेंडे के तहत कराया जाता है।  मोहरे हैं आप - सब उन देश द्रोहियों के।  जो सामने नहीं आते  हैं। 
K.B.Rastogi



Friday, 24 March 2017

राजधानी एक्सप्रेस में फर्स्ट AC की यात्रा



कई लोगो में अहंकार तो कूट - कूट कर भरा होता है विशेष रूप से जब वह राजधानी के  फर्स्ट AC से सफर कर  रहा होता है।
लगता है वह सफर करने नहीं बल्कि फाइव स्टार होटल में खाने के लिए आये हैं।
अभी दो हफ्ते पहले ही बम्बई  जाना हुआ , आजकल रेलवे की  फ्लेक्सी फेयर स्कीम के कारण , ट्रेन के किराये से सस्ता  हवाई जहाज का किराया है इसलिए गया तो हवाई जहाज से ही था पर लौटने की टिकेट राजधानी के  फर्स्ट AC  में मिल गई तो उसमे ही बुक करवा ली ।
ट्रेन में जब पहुंचा तो अपने कूपे में मैं अकेला यात्री ही था , परन्तु गाड़ी चलने से कुछ पहले
 कूपे में एक लगभग 70 वर्षीय महिला का,  सह यात्री के रूप में आगमन हुआ।
अँग्रेजियत में लिप्त , बड़ी नफासत के साथ अपनी बर्थ पर विराजमान हो गई।
जी हाँ उसे नफासत  ही कहेंगे जो अक्सर उम्रदराज महिलाओ में पाई जाती है , लखनऊ की ।  
खैर गाड़ी चलने के थोड़ी ही देर में टीटी साहब टिकेट चेक करने आये, उनके साथ एक शख्स भी था ,टाई लगाये , उसके बारे  में बताया कि यह यात्रा के दौरान हमारी टेक केयर करेंगे।  बड़ी तहजीब से उस शख्स ने हमें नमस्कार किया और चला गया ।
गाड़ी अपनी तीव्र गति से दौड़ रही थी।  लगभग  छह बजे पेन्ट्री कार वालो ने  पहले शाम का स्नैक्स सर्व करना शुरू किया।  हम तो वेजेटेरियन हैं इसलिए शाकाहारी लिया लेकिन उक्त महिला ने नॉन-वेज  कॉन्टिनेंटल का ऑर्डर दिया।
 नॉन-वेज   के साथ खाना -पीना मुझे थोड़ा अटपटा  सा लगता है परन्तु यह ट्रेन हैं आपका घर नहीं।
लगभग साढ़े सात बजे सूप सर्व करने के लिए आ गया।
महिला ने अपने लिए कॉन्टिनेंटल सुप की मांग की , हम तो वही टॉमेटो सुप वाले थे।
लेकिन तभी  देखा , वह  महिला पेंट्री कार वाले पर नाराज हो रही हैं।
बोली "यह कौन सा तरीका है सर्व करने का , is this is the way to serve , call your manager.
अब वही टाई लगाए शख्स बैरे के साथ हाजिर हुआ।
आते ही विनम्रता से बोला क्या हुआ मैडम ?
"नहीं  आप मुझे यह बताये क्या यह तरीका है सर्व करने का ? बॉन चाइना  की क्रॉकरी क्यों नहीं है , नहीं - नहीं आप मुझे यह बतायें क्या फर्स्ट AC  में सफर करने वालो को ऐसे सर्व करते हैं।  हम कोई थर्ड या सेकंड AC  में सफर नहीं कर रहे हैं।
वह बोला मैडम यह ब्राण्ड न्यू  क्रॉकरी दिल्ली ऑफिस से आई है।  अब बॉन चाइना बंद कर दी है।
"अब बैरा हाथ जोड़ कर  बोला मैडम गलती हो गई , माफ़ कर दे "
मैडम बोली " नहीं आप क्यों  माफ़ी मांग रहे हैं , आपको जैसा कहा जायेगा आप वैसा करेंगे।  यह माफ़ी मांगेंगे।
अब वह टाई वाला भी हाथ जोड़ने लगा , माफ़ी मांगने लगा।
मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया कि गड़बड़ हुई तो कहाँ हुई।  मुझे तो सब कुछ सामान्य लग रहा था।
हमने फर्स्ट AC  में सफर तो किया था पर राजधानी में पहली  बार कर रहा था।
मन ही मन हंस भी रहा था।
खैर इस सारे झगडे में  आठ बज गए।
रात नौ बजे खाना सर्व करना शुरू हुआ।
देखा दाल,  सब्जी सभी करीने से बाउल में डाल  कर ऊपर से एल्युमिनियम फाइल से  पैक करके ले कर आया।
महिला को  अलग टेबल लगा कर सर्व किया।
सोंचने लगा क्या जलबे हैं।
खाना समाप्त ही हुआ था  कि बड़ौदा स्टेशन आ गया।
यहाँ एक और यात्री हमारे कूपे में दाखिल हुआ।  अब हम तीन यात्री हो गए।  चौथी सीट खली ही रह गई।
लगा  अक्सर यात्रा करते हैं तभी TT एवं अन्य स्टाफ से हाय -हेलो कर रहा था।
बैरा तुरंत खाने का ऑर्डर लेने आ गया ,  बोले , चिकन फुल बॉयल्ड , लाइट फ्राई विथ कॉन्टिनेंटल सॉस  और भी जाने क्या - क्या ऑर्डर किया।
जिस तरह से वह फोन पर बाते कर रहे थे उससे लगा की हरियाणा कांग्रेस के कोई नेता हैं।
मैं बैठा - बैठा सोंच रहा था यह रेल गाड़ी का सफर कर रहे हैं या किसी फाइव स्टार होटल में खाने के लिए आये हैं।
करीब आध - पौन  घंटे के बाद बैरा खाना ले आया।
मेरी सीट नीचे  की थी,  दस बजने को हो रहे थे , मुझे भी लेटना था।
उन्होंने मुझसे रिक्वेस्ट की कि खाना खा कर ऊपर सीट पर चला जाऊंगा।
मैंने कहा ठीक है ,  कोई परेशानी जैसी बात नहीं , सफर में थोड़ा बहुत तो एडजस्ट करना ही  पड़ता है।
आधा खाना खाने के बाद फिर बैरे को बुलाया।
बैरा हाजिर , क्या हुआ ?
ऑर्डर दिया।  जाओ अपने कुक को बुला कर लाओ ,
सर पर बड़ी सी टोपी लगाए  कुक हाजिर हुआ।
आते ही बोला "क्या हुआ  सर ?"
सर  नाराज होते हुए बोले " ऐसे बनाते हैं चिकेन ?"  यह फुल बॉयल्ड चिकेन है ? मैंने बोला था "चिकन फुल बॉयल्ड , लाइट फ्राई विथ कॉन्टिनेंटल सॉस  "
ऐसा होता है क्या चिकेन?
फिर वही साहब की लल्लो -चप्पो।
साहब का पेट तो भर ही गया था ,  ऑर्डर दिया "ले जाओ इस बचे- खुचे खाने को।  "
 सोंच रहा था ,  केवल 340 रूपये ही तो दिए है खाने के , इतने में तो  रेस्टोरेन्ट में एक प्लेट सब्जी ही आएगी   ।
सुबह बैरा बेड  टी लेकर आया , ब्रेक फ़ास्ट का ऑर्डर लेने लगा।
हम तो वही शाकाहारी थे, महिला  ने कॉन्टिनेंटल की मांग की।  और तीसरे यात्री जोकि स्वघोषित कांग्रेसी नेता थे।
ऑर्डर में लिखाया , बॉयल्ड एग छिलका छिल कर लाना है साथ ही साथ थोड़ा सा पोहा , एक कटलेट , ब्रेड सैंडविच और जाने क्या।
यह सारा वाकया देख दिमाग में यही आ रहा था फर्स्ट AC  में सफर करने वालो अपने आप को किसी नबाब से कम नहीं  समझते हैं अगर रिजर्वेशन मिल गया , वरना तो TT  के आगे हाथ जोड़े,  खड़े मिलते हैं।  

Saturday, 7 January 2017

रेलवे के अकर्मण्य अधिकारी


अधिकारी किस तरह से मैनेजमेंट को सब्जबाग दिखा कर अपना उल्लू साधते हैं इसका एक किस्सा है।
बात  करीब तीस वर्ष  पहले एक टीवी कंपनी की  है  , उस समय कम्पनी की दिल्ली की बिक्री लगभग 25 लाख़  महीने की थी , मार्केटिंग  स्टाफ पर हर समय कंपनी की सेल बढ़ाने का दबाव रहता है। इसीलिए वे तरह - तरह की स्कीम लाते रहते थे।  एक बार   उन्होंने  एक नई स्कीम डीलरों को विदेश यात्रा करवाने की,   लांच की।   यह स्कीम दो महीने के लिए थी और  इस   स्कीम में  दिल्ली  की सेल 25 लाख़ महीना से बढाकर 50 लाख करनी थी यानि कि दो महीने में एक करोड़ की   सेल  करना था , सभी डीलरों को टारगेट दे दिया गया कि जो डीलर इसमें सफल हो जायेंगे उन्हें कंपनी के खर्च पर हांगकांग घुमाने ले जाया जायगा।  आज से तीस वर्ष पहले हांगकांग घूमने जाना बड़ी बात हुआ करती थी।  कई  डीलरों के पास उस समय पासपोर्ट तक नहीं थे , उनके पासपोर्ट बनवाये गए।   मैनेजमेंट  ने भी इस स्कीम को अप्रूव कर दिया क्योकि कम्पनी की  सेल दोगुना हो  रही थी।  अब मार्केटिंग वाले बोले कम्पनी की सेल दोगुना हो रही है तो  डीलरों की क्रेडिट लिमिट बढाओ।  मैनेजमेंट ने  वह भी अप्रूव कर दी ।
दो महीने पूरा होते  - होते मार्केटिंग वालो ने क्रेडिट पर माल देकर  ज्यादातर डीलरों का  टारगेट पूरा करवा दिया।  अब क्या था, स्कीम सक्सेस फुल हुई ,  सभी बहुत उत्साहित थे।  मार्केटिंग  टीम ने फटाफट सबके टिकेट बुक करवाये और डीलरों को लेकर एक हफ्ते की  हांगकांग की सैर के लिए निकल पड़े।
वहां से लौट के आने बाद सारे के सारे बड़े खुश होकर अपनी पीठ थपथपा रहे थे।  मैनेजमेंट भी खुश , कमाल कर दिया लड़को ने , दो महीने में कम्पनी के सेल दोगुनी हो गई।  अब अन्य राज्यो की मार्केटिंग टीम भी इस स्कीम को लांच करने में लग गई।
अब बारी थी मेरी , स्कीम खत्म होने के दो महीने के बाद ऑडिट शुरू किया ,  तो पता लगा अगले दो महीने में कंपनी की सेल घट कर 50 % ही रह गई।  मतलब यह कि जहाँ कंपनी हर महीने अपने टीवी 25 लाख के बेचती थी  वह अब केवल 10 से 12 लाख  के बेंच रही है इसके अतिरिक्त डीलरों पर उधार अलग से बढ़ गया। मैने इसे बेहतर तरीके से समझाने के लिए  ग्राफ पेपर  का सहारा लिया , एक बढ़िया सा चार्ट तैयार करके मैनेजमेंट के सामने रखा गया।  तब जाकर मार्केटिंग टीम का खेल  समझ में आया कि क्रेडिट लिमिट बढ़ा कर स्टॉक को डीलरों के पास डंप कर दिया गया , कंपनी को बताया गया सेल बढ़ रही है और इस तरह से  सारे के सारे डीलरों के साथ कम्पनी के खर्च पर हांगकांग की सैर कर आये।  कंपनी को क्या मिला करीब 4 लाख रूपये का अतिरिक्त खर्च।

कुछ ऐसा ही रेलवे में हो रहा है,  अधिकारी   यह तो बता रहे हैं कि फ्लेक्सी फेयर स्कीम से रेलवे को तीन महीने में 130 करोड़ का फायदा हुआ है और इसीलिए उसको जारी रख रहे हैं।  लेकिन यह नहीं बता रहे हैं कि  इस स्कीम की वजह से जो सीटे खाली रह गई,  उनसे कितने हजार करोड़ का नुकसान  रेलवे को हुआ है।
अब कोई मेरे जैसा होता तो पहले तो यह डाटा निकलवाता कि पिछले तीन महीने में कितनी सीटे खाली रह  गई और उनसे कितने किराये का नुकसान  हुआ. उसके बाद सभी को बर्खास्तगी का नोटिस थमा देता।  लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है।  

Thursday, 14 April 2016

क्या न्यायपालिका राजनीति का अखाडा बन गई है



लगता है न्यायपालिका , न्यायपालिका नहीं , राजनीति का अखाडा बन गई है।  जिसे देखो वही  अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने पहुँच जाता है हाईकोर्ट और  सुप्रीमकोर्ट।
मजे की बात यह है कि कोर्ट को भी इस तरह के मुकदमे सुनने में दिलचस्पी दिखाती है।  फटाफट सुनवाई हो रही है।  सालो से न  जाने कितने मुकदमे विचाराधीन है उनका नंबर ही नहीं आ रहा है।
शनि मंदिर में औरतों को भी  पूजा करनी है , पहुंच गए सुप्रीम कोर्ट , कोर्ट ने भी कह दिया हाँ करो पूजा ।
जबकि कोर्ट को देखना चाहिए था कि कहीं  केवल राजनीति तो नहीं कर रही है यह महिला।  क्या वास्तव में  यह महिला धार्मिक है या केवल ड्रामे कर रही है।  दिन में कितने बार मन्दिर दर्शन के लिए जाती है ? शायद महीने में भी एक बार नहीं जाती होगी।
पूछना चाहिए था कि केवल हिन्दू धर्म की महिलाओं के लिए  क्यों अधिकार मांग रही हो ? जो अन्य धर्मो की महिलाएं हैं उनके अधिकारों के बारे में क्यों बात नहीं कर रही हो ?
केवल  एक यही एक मामला नहीं है अभी जल्दी में कई  ऐसे मामले आये हैं जिन्हे देख कर लगता है कि कोर्ट तो केवल राजनीति का अखाडा बन  कर  गई है।
अभी - अभी IPL पर पानी की बर्बादी को लेकर हाईकोर्ट ने उनको महाराष्ट्र से कहीं और  करवाने के लिए आदेश कर दिए हैं।
जबकि BCCI कह रही है कि वह RECYCLE वाटर ही ग्राउंड में यूज़ करेगी।  बात अमिताभ ठाकुर की भी सही है कि जब बॉम्बे में पानी की इतनी बड़ी किल्लत है तो यह नियम सभी पर लागू होना चाहिए , चाहें वह पांच सितारा होटल के स्वीमिंग पुल हों  या हरे भरे उद्यान।
दूसरी बात अब जब वहाँ पर मैच नहीं होंगे तो क्या  स्टेडियम की घास को जब तक बारिश नहीं होती सूखने दिया जायेगा।
यह वाही लोग हैं जिन्हे होली पर रंग खेलने पर पानी की बर्बादी नजर आती है।
अभी कुछ दिन पहले श्री श्री रविशंकर द्वारा एक आध्त्यमिक प्रोग्राम यमुना किनारे किया गया।  लोगो के पेट में दर्द शुरू हो गया।  पंहुच गए कोर्ट NGT , उनकी गिरफ्तारी की मांग तक एक तोतले नेता ने कर डाली।  जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाबजूद आज भी हजारो लोग यमुना के किनारे रह रहे हैं तब इन्हे पर्यावरण की चिंता नहीं होती है।
एक और केस सुनाने में आया है कि  अमिताभ  बच्चन पर किसी ने केस किया है कि उन्होंने ने राष्ट्रीयगान 52  सेकण्ड से ज्यादा समय में गया अत; उन पर अपराधिक कार्यवाही होना चाहिए।
मैं होता तो सबसे पहले शिकायतकर्ता से कहता कि पहले तू 52 सेकण्ड में गाए , अगर न गा  पाया तो सबसे पहले तेरे को जेल भेजेंगे।  गायब हो जाता पता नहीं लगता कहाँ गया।  लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
एक और केस सुनने में आया है कि किसी ने हाईकोर्ट में मोदी जी के खिलाफ केस दर्ज कराया है कि उन्होंने ने इण्डिया गेट पर योग करते समय जो गमछा गले में  लपेट रखा था उससे अपना मुँह पोछा जबकि वह गमछा तिरंगे रंग  का था।
बुजर्ग कहते आये हैं कि भगवान न करे कि कोर्ट कचहरी के दर्शन करने पड़े लेकिन यहाँ तो लगता है इन लोगो के लिए इस तरह के केस करना एक तरह से पिकनिक है।
अब जब न्यायपालिका इस तरह के केस स्वीकार करती है और उनपर सुनवाई करती है तो कोई अच्छी छवि नहीं आम जनता के मन में न्यायपालिका के लिए बनेगी।
यह न्यायपालिका का दायित्व है कि वह अपनी साख को बना कर रखे।  

Saturday, 19 March 2016

सर्राफा व्यापारी की हड़ताल पर सरकार खामोश क्यों


 आम आदमी की नजर में  सबसे सरल और सुरक्षित बचत का साधन ज्यूलरी है। जो वक़्त- जरूरत उसके काम आती है।  किसी  भी समय  कैश की जा सकती है।  इसीलिए भारतीय लोग सबसे ज्यादा ज्यूलरी  पर इन्वेस्ट करते हैं।
विशेष रूप से गाँव -देहात में तो बहुत बड़े पैमाने पर लोगो की जरूरते इसी के माध्यम से पूरी होती हैं।  जब जरूरत पड़ी गिरवीं रख दी या बेंच दी। और जब जरूरत हुई खरीद ली।  इस तरह से  छण भर में उनकी जरूरत पूरी हो जाती हैं।    गांव का गरीब किसान तो अपनी फसल पैदा करने के लिए इसी पर निर्भर रहता है।  फसल उगाने  के लिए बीज , खाद की जरूरते  ज्यूलरी गिरवीं रख कर पूरी करता है और जैसे ही फसल तैयार होती है उसे बेंच अपनी  ज्यूलरी छुड़वा लेता है।  
कहने का आशय यह है कि आम आदमी के लिए बचत का सबसे सरल साधन ज्यूलरी है।
सरकार का उद्देश्य भी  बचत को बढ़ावा देना होता  है इसीलिए  इन्कम  टैक्स में बचत पर तरह - तरह की छूट देती है।  लेकिन जिस तरह की योजनाओ पर सरकार इन्कम  टैक्स में छूट देती है वह केवल नौकरीपेशा के लिए हैं।  आम आदमी के लिए तो ज्यूलरी ही बचत का श्रेष्ठ साधन है।
अब आता हूँ मुख्य मुद्दे पर कि इस बार वित्त मंत्री ने लोगो की इस बचत पर टैक्स लगा दिया है।  सर्राफा व्यापारी इस तरह के टैक्स के खिलाफ एक तरह से आम आदमी के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं।  पिछले कई दिनों से अपनी दुकाने बंद रख कर हड़ताल किये हुए हैं।  दूसरी तरफ वित्त मंत्री इस पर अड़ियल रुख अपनाये हुए हैं।  उन्हें आम आदमी से कोई मतलब नहीं क्योकि वह न आम आदमी थे और न हैं।
मोदी जी के शब्दों में कहा जाय  तो जैसे वह राहुल गांधी के लिए मुहावरा प्रयोग करते थे कि वह तो  मुंह में चांदी  का चम्मच लिए हुए पैदा हुए हैं। तो यही बात अरुण जेटली के ऊपर भी apply होती है।   उन्हें क्या मालूम कि एक किसान की रोटी कैसे चलती है।  कैसे वह अनाज पैदा करता है।  यह सब तो उसे मालूम होता है जो इन परिस्थितियों के मध्य से गुजरा हो या उसने नजदीकी से यह सब देखा हो।
जो मंत्री कई - कई एकड़ के भवन में रहते है ढेरो नौकर - चाकर उनके आगे पीछे लगे रहते हैं उन्हें क्या मालूम कैसे तिनका - तिनका जोड़ कर एक आदमी अपनी बिटिया के लिए जेवर खरीदता है।  और आपको उस पर भी टैक्स चाहिए।  क्योकि मुंह में खून जो लगा है उसका स्वाद कैसे भुला दे यह नेता लोग।
कोई बड़ी बात नहीं कि इस तरह से जेटली जी मोदी जी की राह में  में कांटे बिछा रहे हो ।
मोदी जी के राज्यसभा  में दिए गए धन्यवाद प्रस्ताव में पढ़ी  गई  निंदा फाजली की गजल के कुछ इस तरह के मायने तो नहीं हैं।
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिराके अगर तुम सम्भल सको तो चलो
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो
निदा फ़ाज़ली

Saturday, 2 January 2016

केजरीवाल के ओड - इवेन फार्मूले का सच क्या है


दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करने के लिए केजरीवाल सरकार द्वारा लाया जा रहा ओड - इवेन फार्मूला एक तरह से इस कहावत को चरितार्थ करता है कि " हरड़ लगे न फिटकरी रंग चोखा आए।  अगर सरकार  दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करना चाहती है तो तथ्यों पर आधारित एक ऐसी प्रणाली को लागु करना होगा जिससे  जनता महसूस करे कि सरकार वास्तव में दिल्ली को प्रदूषण मुक्त  करने के लिए कृतसंकल्प है।  लेकिन जिस तरह से आप पार्टी और केजरीवाल रेडियो , टीवी  पर अपना प्रचार कर रहे हैं उससे तो यही लगता है जैसे कोई इलेक्शन कैंपेन चलाया जा रहा है।
दिल्ली की सड़को से वाहन को कम करने के लिए एक कठोर कदम उठाना पड़ेगा और वह है वाहनो को फाइनेन्स स्कीम के तहत बेचा या ख़रीदा नहीं जा सकता।  यानि की खरीदार अगर एक 45,00,000 /- लाख की कार खरीदने जायेगा तो उसे 45,00,000 /- लाख रूपये एक मुश्त भुगतान करना होगा।  होगा यह कि इतनी बड़ी रकम भुगतान करना लोगो के लिए आसान नहीं होगा।  आज के हालात यह हैं कि एक 15000 /- से 20000 /- की तनख्वाह लेने वाला भी एक छोटी - मोटी  कार तो  खरीद ही लेता है।
अब सवाल उठता है कि सरकार ऐसी पॉलिसी  बनाती  क्यों नहीं ; तो सच यह है कि सरकार वाहनो की खरीद फरोख्त से अपनी आमदनी को कम नहीं करना चाहती।
अभी जल्दी में मेरे एक परिचित ने नॉएडा में ऑडी कार  45,00,000 /- लाख की खरीदी।  जिस पर सरकार को वैट एवं रोड टैक्स टैक्स के रूप में लगभग 10 लाख रूपये मिले।  अभी एक्साइज ड्यूटी इसके अतिरिक़्त है।  सोंचने की बात है कि कितना बड़ा रेवेन्यू सरकार को केवल एक कार से प्राप्त होता है।
दूसरी तरफ जब कार सड़क पर चलेगी तो पेट्रोल/ डीजल के टैक्स रूप में अलग कमाई होगी।  तीसरा एम्प्लॉयमेंट पर भी फर्क पड़ेगा।  वह घटेगा।  एक तरह से देश के जीडीपी पर फर्क पड़ेगा।  यह तो नुकसान है इस स्कीम को अपनाने में लेकिन फायदे भी हैं कि एक तो सड़क पर से वाहनो का  बोझ कम हो जायेगा।  दूसरा हमारी तेल की खपत भी कम होगी जिसके कारण विदेशी मुद्रा भी बाहर कम जाएगी।
अब आते हैं केजरीवाल के ओड - इवेन फार्मूले के मुद्दे पर , तो कुछ पॉइन्ट यहाँ पर ध्यान देने योग्य हैं।

1. दिल्ली  में 10000  नए थ्री व्हीलर के लिए लाइंसेस जारी किये हैं अब इन पर मिलने वाली  लाइसेंस फी , वैट , रोड टैक्स से अतिरिक्त कमाई होगी।  यानि कि अगर एक ऑटो पर अगर 100000 /-   रूपये लाइंसेन्स  के और टैक्स के मिलते हैं तो 100 करोड़ की आमदनी तो केवल ऑटो से हो हो जाएगी। मतलब  सरकार की जेब से तो कुछ गया नहीं कमाई मुफ्त में।  इसे कहते हैं  हरड़ लगे न फिटकरी रंग चोखा आए।
2 . यह भी पता लगा है कि जो 10000  नये थ्री व्हीलर के लिए लाइसेंस जारी किये जा रहे हैं वह बजाज कम्पनी के लिए ही हैं।  यानि कि  एक विशेष कम्पनी पर इस तरह की दरियादिली क्यों ?. जबकि हर समय अडानी एवं अम्बानी के खिलाफ भाषण बाजी करते रहे हैं केजरीवाल और अब बजाज पर मेहरबानी का अर्थ क्या है।
3 . इसी तरह से 3000 बसो को भी परमिट दिए जा रहे हैं उनसे  जाने कितने करोड़ कमाई होगी।
4 . अब सवाल उठता है कि अगर इनकी स्कीम फेल हो गई जिसका अंदाजा इन्हे खुद है तब क्या इन अतिरिक़्त थ्री व्हीलर और बसो के लाइसेंस कैंसिल किये जायेंगे , शायद नहीं।    यानि कि करोड़ो की कमाई मुफ्त में हो जाएगी ।
5. एक प्रश्न और हम जब कार इस कोई वाहन खरीदते हैं तब सरकार रोड टैक्स , रोड पर वाहन चलाने के लिए हमसे वसूलती है।  अब जब हम साल में आधे दिन ही अपना वाहन चला पाएंगे तो क्या आधा रोड टैक्स वह वापस करेगी।  एक केस इस मुद्दे पर भी कोर्ट में चलना चाहिए।
आज ही न्यूज में पढ़ा कि एक आदमी का  आफिस जाते समय ट्रेफिक पुलिस ने चालान काटा , ट्रेफिक पुलिस अधिकारी ने ही बताया कि उसे इस नियम की जानकारी थी परन्तु  उसके पास आफिस जाने के लिए अन्य कोई विकल्प नहीं है क्योकि वह  नॉएडा में पारी चौक पर रहता है  और वहां से दिल्ली के लिए परिवहन का कोई सुगम मार्ग नहीं है।
यही समस्या दिल्ली एवं  उसके आस-पास रहने वालो के साथ है।  हर व्यक्ति दिल्ली की ट्रेफिक समस्या से जूझ रहा है।  लेकिन उसकी मजबूरी है कि बिना अपने वाहन के वह अपने गंतव्य स्थान पर कैसे पहुंचे।  जब से मेट्रो चली है लाखो लोग इस ट्रेफिक से बचने के लिए नजदीकी मेट्रो स्टेशन पर अपनी गाड़ी खड़ी  करके मेट्रो से सफर कर रहे हैं।
 सच बात यह है कि यह एक तरह का  तुगलकी फरमान  है और इससे  आम जनता का कोई भला नहीं होगा वल्कि आम जनता को आम आदमी पार्टी त्रस्त करती नजर आ रही है।    

Saturday, 18 July 2015

एक लुप्तप्राय कला नौटंकी


यूँ तो नौटंकी भारतवर्ष के अलग- अलग राज्यों में कलाकार अलग- अलग  ढंग से प्रदर्शित करते हैं।  यहाँ मै अपने शहर शाहजहाँपुर में होने वाली नौटंकी की बात कर रहा हूँ।  जो कि बचपन की भूली - बिसरी यादो में से एक है । 
आज से तीस - चालीस साल पूर्व मनोरंजन के सीमित साधनो में से एक साधन  थी नौटंकी।  आमतौर पर गर्मी या बरसात के दिनों  में ही नौटंकी का आयोजन  होता था।   
नौटंकी के लिए कोई स्थान विशेष नहीं होता था।  शहर के किसी तिराहे या चौराहे  पर नौटंकी का आयोजन किया जाता था ।  मोहल्ले के लोग आपस में चंदा इकठ्ठा करके  नौटंकी करने वाले कलाकारों से नौटंकी करवाते थे।   जहाँ तक मुझे याद है उस समय 50 /- से 100 /- रूपये में ही इसका आयोजन हो जाता था।   नौटंकी रात के करीब ग्यारह- बारह बजे शुरू होती थी और पौ फटने  तक चलती थी।     इसके विषय होते थे लैला - मजनू , सुल्ताना डाकू , आल्हा - उदल , राजा हरिश्चंद्र, अमर सिंह राठौर  आदि।  इनमे से किसी एक विषय पर नौटंकी  खेली जाती  थी।  
जिस जगह नौटंकी होने को होती थी उस तिराहे या चौराहे  पर दिन के समय एक सफ़ेद चादर तान दी जाती थी।  जिससे उस रास्ते से आने- जाने वाले लोगो को पता लग जाता था।  
नौटंकी में बहुत ही सीमित  पात्र होते थे जिनमे से दो- तीन स्त्री और दो- तीन  पुरुष होते थे।  वही  सब तरह के रोल अदा करते थे।   कहानी दिलचस्प रखने के लिए वीरता, प्रेम, मज़ाक़, नाच - गाना  मिलाया जाता था।   कलाकार का  प्रयास रहता  था  कि  सभी चीजो में तारतम्य बना रहे ।  नाच - गाना  इसका आवश्यक अंग था।   नाच - गाने के बीच में कई दर्शक रूपये देते थे।  रूपये देने वाला दर्शक अपनी जगह से ही रुपया दिखता था जिसे जोकर या  भांड आकर ले लेता था और उसका नाम पूछ कर  नाचने वाली को बता देता था ।  नाचने वाली उसका नाम पुकार कर  उसके नाम से  ठुमका लगा देती थी।   दर्शको द्वारा दिए जाने वाले रूपये -पैसे ही इन  नौटंकी के कलाकारों की आय का मुख्य  साधन थे। 
नौटंकी की सबसे विशेष बात थी इसका नगाड़ा।  यह नगाड़ा ही नौटंकी का विशेष वाद्य यंत्र हुआ करता था।  वादक एक बड़े नगाड़े के सामने एक छोटा नगाड़ा रख कर बजाता था।  वही वादक अच्छा माना जाता था जिसके नगाड़े की गूंज रात के सन्नाटे में कई कोस तक चली जाती थी। नगाड़े के अतिरिक्त हारमोनियम एवं तबला का प्रयोग भी किया जाता था।  
उस जमाने में टेन्ट हाउस वगैरह तो होते नहीं थे , रात ढलते ही , अड़ोस - पड़ोस रहने वालो  के यहाँ से तख्त इकठ्ठे करके सड़क के बीच में नौटंकी का स्टेज बनाया जाता था।  पुरुष - बच्चे  स्टेज के चारो तरफ बैठ कर एवं  महिलाये पड़ोस के  घर के छज्जो या छतो से नौटंकी देखते थे।  
सबसे बड़ी बात , कि रात में, उस रास्ते  से  गुजरने वाले ट्रक , बस के ड्राइवर भी अपने ट्रक या बस को एक साइड में खड़ा करके नौटंकी देखते थे।   कोई किसी तरह का विरोध नहीं करता था कि नौटंकी के कारण रास्ता रोक  रखा है या फिर अड़ोसी - पड़ोसियों को रात में उनकी नींद में खलल पड़ने से विरोध करना पड़े । आज के समय में तो जो बाहुबली हैं वह  अपने आप ही निपट लेते  अन्यथा अन्य  पुलिस बुला लेते या फिर कोर्ट केस कर देते।  
 क्या जमाना था दुसरो की ख़ुशी में खुश , दुसरो के गम में दुःख।   कितनी गुंजाईश लोगो में होती थी लोगो के दिलो मे।  
वक्त के गुजरने के साथ ही साथ नौटंकी भी गुजरे वक़्त  यादो में सिमट गई है।