Monday, 6 July 2015

नहीं चाहिए ऐसे नेता



पिछले एक - दो दिनों में जो समाचार पढ़े,  उन्हें पढ़ कर यही लगता है हमारे देश के लिए  यह  बहुत दुर्भाग्य पूर्ण है कि आम  जनता के  वोट से नेता बनते ही  इन नेताओ के दिन  बहुरने लगते हैं , यह आम आदमी से खास बन जाते हैं , यह माननीय बन जाते हैं।  और उसके बाद  दौर शुरू होता है विशिष्ट सुविधाओ का, जो कि नेता बनते ही इन्हे चाहिए।  

सांसदों को 100 % सेलरी में बढ़ोतरी चाहिए  एवं अन्य बहुत सी सुवधाएं चाहिए , जो भूतपूर्व हैं उन्हें भी चाहिए , दिल्ली के आम आदमी विधायको का  84 हजार रूपए मासिक में गुजर नहीं हो पा  रहा है।  अभी तेलांगना नया - नया राज्य बना है , वहां के मुख्य मंत्री आम आदमी की तरह बस से सफर करना चाहते हैं इसलिए पांच करोड़ की लग्जरी बस उनके लिए खरीदी जा रही है।  


क्यों भाई क्यों , यह सब सुविधाए हमारे ऊपर टैक्स थोप कर ही तो  इन्हे दी जाती हैं।  क्यों भाई , एक तरफ तो समाज सेवा का गमछा ओढ़े हुए जनता को तरह - तरह से लुभाते हो , हम तो आपकी सेवा करना चाहते हैं ,किसी तरह से हमें नेता बना दो देखो मै कितनी सेवा करता हूँ।  लेकिन नेता बनते ही अपनी सेवा शुरू हो जाती है।  

 इन पर यह  मुहवरा चरितार्थ होता है कि " हाथी के दाँत खाने के और , दिखाने  के और होते हैं।  

नही चाहिए भाई हमें ऐसे नेता , मत वोट की भीख माँगने आओ , बैठो अपने घर पर , यह आम जनता नहीं जाती है आपके घर पर कि हजूर चलिए आप हमारे नेता बन जाइए।  आप आते है हमारे दर पर , लम्बे - लम्बे भाषण देते हैं , सुहाने सपने दिखाते हैं , क्या इसीलिए कि एक बार चुन लिया जाऊ फिर देखो  कैसे सीने पर मूंग दलूँगा।  

जब आपके पास इतने संसाधन नही है कि आप अपने परिवार का खर्च चला सके , तो क्या जरूरत है नेता बनने की।  कहीं नौकरी करो , कोई दुकान करो अपने परिवार का भरण - पोषण करो।  क्यों हम लोगो की जेब पर डाका डालना चाहते हो ।  
अरे भाई नेता तो हम  भी बन सकते  थे , जहाँ जाते सब लोग सैल्यूट करते , सबकी निगाहे हम पर टिकी रहती , यह पुलिस वाले जहाँ चाहे वहाँ हाथ  कर रोकते नहीं , इनकी हिम्मते नहीं होती कि पूछते कहाँ जा रहे हो , क्या ले जा रहे  हो , थैले में क्या है , पर क्या करे परिवार की जिम्मेदारी जो निभानी थी।  नेता बनते तो परिवार का खर्च कैसे चलता।  
अब अगर आपका खर्च नहीं चलता तो घर बैठिये , बहुत सारे लोग है जो इससे कम तनख्वा में देश भी चला सकते हैं और अपना घर भी।  

राम धारी सिंह 'दिनकर की  कविता याद आ रही है , कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है"

तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

Monday, 1 June 2015

टिटहरी


टिटहरी एक चिड़िया , अपनी कर्कश, तेज आवाज के लिए जानी जाती है  , उसकी  यही कर्कश तेज आवाज उसे उसके  अपने बच्चो की रखवाली करने में बहुत मददगार साबित होती  है , अपनी तेज आवाज से अपने बच्चो को  आने वाले खतरों से आगाह करती रहती है , साथ ही साथ अन्य छोटे - मोटे जीवों को डरा कर अपने बच्चो के पास आने नहीं देती है। 

पिछले दो सालो से देख रहा हूँ कि आजकल के दिनों में ही पता नहीं कहाँ से आकर   घर की छत पर, खुले आसमान के नीचे अपना घोसला बना लेती है।  अन्डो से जैसे ही बच्चे निकलने के कुछ समय बाद  वह फुदकते हुए छत से नीचे कूद आते हैं ,

इसके बच्चो को देख कर लगता है कि बच्चे चाहे इंसान के हो या किसी अन्य प्राणी के , शरारत जरूर करते हैं। अभी बहुत छोटे ही थे , एक दिन देखा लॉन   से कूद कर ड्राइव वे पर गये , अब टिटहरी लगातार  शोर मचा रही  थी , मुझे भी लगा कि अगर गेट से बाहर निकल गए तो इनका बचना मुश्किल है।  कूद कर नीचे तो गये परन्तु वापस जाने के लिए चार इंच ऊँची सीढ़ी  भी नहीं चढ़ पा रहे थे , लकड़ी के दो फट्टे रखे तब जाकर उसके दोनों  बच्चे  फुदक कर वापस लॉन में पहुंचे। 

पिछली बार तो बिल्ली चट  कर गई थी , : परन्तु इस  बार मनी प्लांट के बड़े - बड़े पत्तो में छिप  कर बच गए।  

सबसे बड़ी बात तो उन दोनों नर - मादा टिटहरी की अपने बच्चो के लिए की गई तपस्या है।  हर समय एक छत के ऊपर बैठा हुआ , भरी गर्मी में, तपती धूप में  चौकीदारी करता रहता है दूसरी मादा बच्चो  के आस-पास मंडराती रहती है।  जैसे ही घर का कोई भी सदस्य बाहर लॉन की तरफ आता है ; जोर - जोर से अपनी कर्कश आवाज में शोर मचाना शुरू कर देती है और उसके बच्चे पत्तो में जाकर छिप जाते हैं।    24  घंटे उनकी रखवाली कर रहे हैं पता नहीं किस समय यह आराम करते होंगे।  सारे दिन , सारी  रात शोर मचाती रहती है।  

15-20  दिन हो गए हैं , अब थोड़े बड़े हो गए हैं ; परन्तु अभी भी  उड़ने लायक नहीं हुए , अभी मादा टिटहरी  दोनों बच्चो के साथलॉन में इधर - उधर घूमती रहती है   जैसे ही  उड़ने लायक होंगे , उड़ कर अपनी नई दुनिया में चले जायेगे , पता नहीं टिटहरी के साथ जायेंगे या अपनी एक नई मजिल की तलाश में कहीं और.…………  शायद टिटहरी भी एक नए गंतव्य की और चली जाएगी। 

सवाल बहुत से हैं और उसमे एक यह भी है कि  क्या इन बच्चो को पता होगा कि उसके माँ - बाप ने  किस तरह 42 -44 डिग्री की तेज धूप  की परवाह करते हुए  दिन - रात उनके जीवन को बचाया , उनकी  रक्षा की।    


Tuesday, 14 April 2015

ट्रेफिक समस्या से जूझता दिल्ली शहर





यूँ तो हिंदुस्तान के कई शहर हैं जो कि नित्य प्रतिदिन ट्रेफिक जाम  से जूझते रहते हैं ; परन्तु दिल्ली की ट्रेफिक समस्या दिन -प्रतिदिन विकराल होती जा रही है।  जितनी कार , दो पहिया वाहन इस शहर की सड़को पर दौड़ते हैं उतने शायद ही किसी भी महानगर में दौड़ते होंगे।  सड़के जितनी चौड़ी होनी थी हो चुकी।  अब और गुंजाइश नहीं।  हर साल ढेर सारे वाहनो का इजाफा हो जाता है।   सड़क पर इन वाहनो की भीड़ बढ़ती चली जा रही है। चौड़ी - चौड़ी सड़को पर चलते हुए वाहन, चलते कम रेंगते ज्यादा नजर आते हैं।   
अभी कुछ दिन पहले मै शाम छह बजे भीकाजी कामा पैलेस से अपने घर जाने की लिए निकला,  रात नौ बजे घर पहुँचा।  यह हालत है दिल्ली की सड़को पर रेंगते हुए चलते वाहनो की।  मै तो यही सोंच कर परेशान हो गया कि जो लोग रोज इन रास्तो पर चलते होंगे उन्हें कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ता होगा।  
दिल्ली के हालात यह हैं कि कई जगहों पर तो ठेली - रेहड़ी वालो ने इस कदर अतिक्रमण किया हुआ है कि  सड़क के साथ - साथ फुटपाथ पर भी इन लोगो ने कब्ज़ा कर लिया है।  जिस अधिकार के साथ यह लोग अपनी ठेली या दुकान लगाते  हैं ऐसा लगता है जैसे यह जगह इनकी बपौती हो। पुलिस का काम है कानून - व्यवस्था बनाये रखना।  लेकिन वह अपनी जिम्मेदारी को निभाना नहीं चाहती या यूँ कहा जाय कि  उसे तो अपनी जेब गर्म करने से मतलब  है ,  इन लोगो से हफ्ता वसूलना  है ।  
पैदल चलने वाला अलग परेशान , चले तो कहाँ चले , सड़क पर रेंगते हुए वाहन  और फुटपाथ पर रेहड़ी वाले।
किस तरह से वाहनो की तादाद   बढ़ रही  हैं उसका एक उदाहरण दे रहा हूँ।  यह बात है आज से दस वर्ष पहले की ,  घर के पास ही एक अपार्टमेंट्स की बिल्डिंग है।  जिसमे रहने वाले अपनी कारें अपार्टमेंट्स की बिल्डिंग के अंदर ही खड़ी किया करते थे। अंदर जगह बची नहीं परन्तु और कारे  आ गई इसलिए  कुछ समय बाद देखा अपार्टमेंट्स की बाउण्ड्री से लगा कर  कारे एक  लाइन में खड़ी है।   चूँकि सड़क काफी चौड़ी  है इसलिए पिछले एक-दो साल  से  अपार्टमेंट्स की बिल्डिंग के अंदर एवं  बाउण्ड्री  से लगा कर दो लाइनो में कारे खड़ी होने 
लगी ।  आज कल सड़क के दूसरी तरफ भी  कारें खड़ी होने लगी हैं।  जबकि अपार्टमेंट में कोई नया निर्माण हुआ नहीं है लेकिन कारो  की गिनती बढ़ती जा रही है।  
दिल्ली एवं उसके आस-पास के हालत यह है कि पहले कुछ एक लोगो के पास कार हुआ करती थी फिर घर - घर  में कार हो गई और अब घर में जितने मेम्बर उन  सभी के पास कार होती जा रही हैं।  
वह बात दूसरी कि उनके पास कार को खड़ी  करने की जगह नहीं है लेकिन कार होनी चाहिए , फुटपाथ है न  खड़ी  करने के लिए।  
मुद्दे की बात यह कि  जब इस तरह से कारें बढ़ती जाएँगी तो सड़क पर भी इनकी भीड़ बढ़ेगी ही।  लोगो को मंजिल तय करने में कठिनाई होगी ही।  
समस्या बड़ी है लेकिन समाधान सरकार के पास है कि अगर सरकार कारों को फाइनेन्स पर बेचना या खरीदना बंद करवा  दे तो इनकी बढ़ती हुई संख्या पर रोक लग जाएगी।  
अभी तो फाइनेन्स के बलबूते पर जबावदेही से  बच निकलते हैं लेकिन तब लाखो - करोडो की कार खरीदते समय हिसाब भी देना पड़ेगा इनकम टैक्स वालो   को।