पिछले एक - दो दिनों में जो समाचार पढ़े, उन्हें पढ़ कर यही लगता है हमारे देश के लिए यह बहुत दुर्भाग्य पूर्ण है कि आम जनता के वोट से नेता बनते ही इन नेताओ के दिन बहुरने लगते हैं , यह आम आदमी से खास बन जाते हैं , यह माननीय बन जाते हैं। और उसके बाद दौर शुरू होता है विशिष्ट सुविधाओ का, जो कि नेता बनते ही इन्हे चाहिए।
सांसदों को 100 % सेलरी में बढ़ोतरी चाहिए एवं अन्य बहुत सी सुवधाएं चाहिए , जो भूतपूर्व हैं उन्हें भी चाहिए , दिल्ली के आम आदमी विधायको का 84 हजार रूपए मासिक में गुजर नहीं हो पा रहा है। अभी तेलांगना नया - नया राज्य बना है , वहां के मुख्य मंत्री आम आदमी की तरह बस से सफर करना चाहते हैं इसलिए पांच करोड़ की लग्जरी बस उनके लिए खरीदी जा रही है।
क्यों भाई क्यों , यह सब सुविधाए हमारे ऊपर टैक्स थोप कर ही तो इन्हे दी जाती हैं। क्यों भाई , एक तरफ तो समाज सेवा का गमछा ओढ़े हुए जनता को तरह - तरह से लुभाते हो , हम तो आपकी सेवा करना चाहते हैं ,किसी तरह से हमें नेता बना दो देखो मै कितनी सेवा करता हूँ। लेकिन नेता बनते ही अपनी सेवा शुरू हो जाती है।
इन पर यह मुहवरा चरितार्थ होता है कि " हाथी के दाँत खाने के और , दिखाने के और होते हैं।
नही चाहिए भाई हमें ऐसे नेता , मत वोट की भीख माँगने आओ , बैठो अपने घर पर , यह आम जनता नहीं जाती है आपके घर पर कि हजूर चलिए आप हमारे नेता बन जाइए। आप आते है हमारे दर पर , लम्बे - लम्बे भाषण देते हैं , सुहाने सपने दिखाते हैं , क्या इसीलिए कि एक बार चुन लिया जाऊ फिर देखो कैसे सीने पर मूंग दलूँगा।
जब आपके पास इतने संसाधन नही है कि आप अपने परिवार का खर्च चला सके , तो क्या जरूरत है नेता बनने की। कहीं नौकरी करो , कोई दुकान करो अपने परिवार का भरण - पोषण करो। क्यों हम लोगो की जेब पर डाका डालना चाहते हो ।
अरे भाई नेता तो हम भी बन सकते थे , जहाँ जाते सब लोग सैल्यूट करते , सबकी निगाहे हम पर टिकी रहती , यह पुलिस वाले जहाँ चाहे वहाँ हाथ कर रोकते नहीं , इनकी हिम्मते नहीं होती कि पूछते कहाँ जा रहे हो , क्या ले जा रहे हो , थैले में क्या है , पर क्या करे परिवार की जिम्मेदारी जो निभानी थी। नेता बनते तो परिवार का खर्च कैसे चलता।
अब अगर आपका खर्च नहीं चलता तो घर बैठिये , बहुत सारे लोग है जो इससे कम तनख्वा में देश भी चला सकते हैं और अपना घर भी।
"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है"
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
बढ़िया विचारपूर्ण कटाक्ष।
ReplyDeleteबहुत - बहुत धन्यवाद।
Deleteयही सब देख लोग कहते हैं की यदि किसी को बहुत सारी गालियां एक साथ देनी हो तो उसे 'नेता' कह दो.. बस ...हो गयी ..
ReplyDeleteचिंतनशील प्रस्तुति
बहुत - बहुत धन्यवाद।
Deleteधन्यवाद
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