Saturday, 27 April 2013

नरेन्द्र मोदी विकास के पर्याय



बात शुरू करता हूँ सहारनपुर से। अभी दो दिन पहले सहारनपुर जाना हुआ। सुबह 7.25  पर गाजियाबाद से शताब्दी में बैठा और 9.50. पर सहारनपुर पहुँच गया। मुश्किल से ढाई घंटे का सफ़र था। दोपहर एक बजे से पहले ही मै  फ्री हो गया। वापस आने के लिए भी मैंने शताब्दी से ही टिकट बुक कराया था पर वह वोटिंग में था और अभी दोपहर एक बजे  तक भी मेरी सीट  कन्फर्म नहीं हुई थी। हाँलाकि अभी चार्ट तैयार नहीं हुआ था। पर रिस्क लेते हुए मैंने बस से ही लौटना उचित समझा। तुरंत ही दिल्ली के लिए बस मिल गई। सहारनपुर शहर पार होने  हुए तक तो हम बड़े आराम से बैठे हुए उम्मीद कर रहे थे कि पांच  बजे तक  घर पहुँच जायेंगे। पर शहर पार होते हि बस उछलती - कूदती और हिचकोले लेती हुई चलने लगी। अब मै  सामने वाली सीट को कस कर पकड़ कर बैठ था। सड़क ऐसी टूटी - फूटी थी कि कई बार तो लगा बस की छत  से टकरा जाऊंगा। सोंचा  थोड़ी दूर तक ही ऐसी सड़क होगी पर देखता क्या हूँ एक दो मिनट तो सही सड़क मिलती उसके बाद  फिर से टूटी हुई सड़क शुरू हो जाती। शामली आने से पहले ही बस जाम में फस गई। पता लगा करीब एकदो  किलोमीटर  आगे एक नेताजी जो कि मंत्री बन गए हैं, उनकी रैली निकल रही है। जगह- जगह पर उनका अभिनन्दन किया जा रहा है. एक तो पतली सी सड़क और उस पर मंत्री जी अपने पूरे लाव -लश्कर के साथ चल रहे हों,  किसकी मजाल जो उनको ओवरटेक करके आगे निकलने की सोंचे। हमारी बस भी रेंगती हुई  उनके कारवाँ के पीछे - पीछे चल रही थी। 
बडौत  के बाद छपरौला से जाकर  साफ़- सुथरी सड़क मिली तब जाकर सांस में सांस  आई पर अब शाम के छह बज रहे थे। सारे शरीर पर धूलमिटटी की एक मोटी  परत जम  गई थी। करीब साढ़े सात बजे बस ने हमें दिल्ली - यू पी बार्डर पर उतारा। जो सफ़र हमने सुबह ढाई घंटे में पूरा किया था वह लौटते समय साढ़े सात घंटे में किया
 मन में विचार आया, हम अब भी  कितने पिछड़े है यह हालत है देश की  राजधानी दिल्ली से लगे हुए शहरो की तो दूर - दराज  के  शहरो - गाँवो के क्या हालात होंगे। कोई भी इस विषय पर चर्चा नहीं करता है। कोई भी इनके विकास की बात नहीं करता है। बात करता है तो वोट की। अपनी पार्टी की सरकार बनाने की। उत्तर प्रदेश जो कि दिल्ली से लगा हुआ है। ज्यादातर वहां के नेता दिल्ली में ही रहते हैं।वह केंद्र की सरकार पर दबाव बना कर इसके विकास की राह खोज सकते है। पर  कर नहीं रहे हैं। अपने - अपने स्वार्थ में लिप्त हैं। 
दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी हैं जो कि केवल विकास और विकास की ही बात करते है। उन्होंने अपने राज्य गुजरात का विकास किया भी है। केवल बाते ही नहीं करते है। और हम विकास की बात करते हैं और ही विकास करते हैं। हम केवल नरेन्द्र मोदी को 2002   के दंगो का दोषी ठहराने की बात करते हैं। क्योकि हमें उनकी उपलब्धि से इर्ष्या है। 
 नरेन्द्र मोदी जो कि विकास के पर्याय बन चुके हैं। आज विदेशी डेलिगेशन  उनके विकास के माडल का अध्ययन कर रहे हैं वही हम हैं कि उनकी बुराई  करते नहीं थक रहे है क्योकि हमें मुस्लिम वोट बैंक की चिंता है। हर समय  डर  बना रहता है कहीं मुस्लिम नाराज हो जाए। हम उनके धार्मिक अनुष्ठानो पर , इफ्तार पार्टी पर मुस्लिम टोपी पहन कर शामिल होने के लिए पहुँच जाते हैं। छदम धर्मनिर्पेछ्ता का मुखौटा पहन लेते हैं। बड़े ही गर्व से अपनी ऐसी फोटो समाचार पत्र में  प्रकाशित  होने का इन्तजार करते हैं। आखिर हमें अपने वोट बैंक की चिंता जो रहती है। 
मुझे गर्व है नरेन्द्र मोदी पर जिन्होंने बड़ी ही विनम्रता से ऐसी टोपी पहनने से इनकार कर दिया था, जब एक समारोह में उन्हें एक मुस्लिम धार्मिक नेता ने पहनाने की पेशकश की थी। सही भी है वह इन नेताओ की तरह पाखंड नहीं करते हैं। उन्हें  इस बात की चिंता  नहीं  कि मुस्लिम उनसे नाराज हो जायेंगे या उन्हें जो  मुस्लिम वोट मिलने हैं वह नहीं मिलेंगे। वह जानते हैं कि हर शख्स विकास चाहता है। जब वह विकास के परिणाम अपनी जनता को देंगे तो जनता उन्हें नकार सकेगी। उन्हें ही पसंद करेगी।  सवाल यहाँ पर यह भी उठता है कि आप तो बड़े गर्व से उनकी टोपी , वस्त्र पहन लेते हो पर क्या कोई मुस्लिम नेता आपका  धार्मिक गमछा , पगड़ी पहनता है। वह ऐसा कदापि नहीं करेगा। 
फिर आता हूँ मोदी के विकास की बात पर, कुछ दिन पहले मेरे चाचा दछिण- पश्चिम  भारत घूम कर दिल्ली आये। बातो ही बातो में बताने लगे कि ट्रेन में एक अहमदाबाद की रहने वाली  मुस्लिम महिला सफ़र कर रही थी। सफ़र में आपस में बात चीत में  उस मुस्लिम  महिला ने  गुजरात की तारीफ की साथ ही साथ बताने लगी कि हमारे यहाँ अहमदाबाद में आपको झुग्गी- झोपडी देखनो को जल्दी नहीं मिलेंगी। आज इस लेख को लिखने से पहले मैंने इस बात की जाँच करने के लिए गूगल पर हिंदी , इंग्लिश दोनों ही भाषाओ में  सर्च किया। सही बात थी अहमदाबाद में तो कुछ नहीं मिला पर दिल्ली में झुग्गी पर ढेरो बेब साईट और यहाँ तक मंत्रालय भी मिल गया। यह है इस देश की राजधानी का हाल जिधर से  भी गुजर जाओ आपको झुग्गी - झोपडी जरुर मिलेगी। सड़क के किनारे , पार्को में, दुसरे के प्लाटो पर, सरकारी जमीन पर, जहाँ मौका मिला वहां। 
अंत में जो सच्चा देश भक्त है , अपने देश से प्यार करता है वह नरेन्द्र मोदी को पसंद करेगा और जो छद्दम देश भक्त है वह नरेन्द्र मोदी की बुराई ही करेगा। क्योकि उसे अपने देश के विकास से मतलब नहीं है उसे तो मुस्लिमो के तुष्टिकरण की फ़िक्र रहती है

Thursday, 11 April 2013

E.S.I. एक टैक्स या सुविधा

E.S.I.  एक टैक्स या सुविधा 
आज के न्यूज पेपर में  खबर पढ़ी कि श्रम संगठनो की मांग पर सरकार ई एस आई सुविधा  की पात्रता 15000/-  से बढ़ा  कर  25000/-करने का विचार कर रही है। मतलब यह कि एक income tax देने वाला भी मजदुर की श्रेणी में आएगा। हर साल उसके खाते से 19500/- रूपये सरकार की जेब में जायेंगे। इसके अतिरिक्त income tax  तो जो बनता है वह तो देना ही पड़ेगा। 
एक बात और है कि Employee चाहें E.S.I की सेवा लेना चाहे या ना लेना चाहे उसका पैसा सरकारी खाते में जमा हो जायेगा और इसका कोई refund नहीं मिलेगा। 
दूसरी बड़ी बात यह है कि एक आदमी का वेतन तो 15000/- है तब उसके वेतन से   975/-   E.S.I.   के खाते में जमा होते हैं और दुसरे आदमी को   5000/-  वेतन मिलता है तब उसके खाते से 325/-  E.S.I.   के खाते में जमा होते हैं पर बीमार होने पर इलाज दोनों को एक ही जैसा होता है दोनों को एक ही लाइन में खड़ा होना पड़ता है। मजदूर वर्ग का कर्मचारी तो फिर भी इसका लाभ उठाता है पर आफिस में काम करने वाले बाबू  लोग ESI  hospital   में जाना बहुत कम ही पसंद  करते हैं। अब मजदूरों को तो 15000/- से  25000/- तनख्वाह मिलती नहीं है। इस समय तो पढ़े- लिखे प्रोफेशनल डिग्री होल्डर भी इस तनख्वाह पर काम कर रहे होते हैं। मुझे तो नहीं लगता इनमे से कोई भी वहां जाना पसंद करता होगा। अब इनका सारा पैसा बट्टे खाते में सरकारी खजाने में जमा हो जाएगा। 
अभी एक कर्मचारी को 15000/- रुपये मिलते है यानी कि  वह  हर साल 11700/- E.S.I. का भुगतान करता है। काफी बड़ी रकम है। चाहे वह एक बार भी  E.S.I. न गया हो. देखा जाय तो एक तरह की जबरदस्ती थोपी गई mediclaim policy है. जहाँ premium सरकार तय करती है. यहाँ आपको अधिकार नहीं है कि आप कितना प्रीमियम भरना चाहते हैं। देखा जाय तो जितनी भी बीमा  कम्पनी है सभी मोटा मुनाफा कमा  रही हैं। L.I.C. ही को देख लो कनाट प्लेस में सबसे ज्यादा इसकी ही बिल्डिंग हैं। 
पिछले कई दिनों से मन में विचार आ रहा था कि यह एक सुविधा है या सरकारी टैक्स जो कि Employee  एवं Employer से जबरन वसूला जाता है. 
कहने के लिए तो सरकार ने इसे सुविधा का नाम दिया है पर मै यह समझता हूँ कि यह सुविधा कम टैक्स ज्यादा है। 
न्यूज पेपर में अक्सर E.S.I. के विज्ञापन छपते रहते हैं क्योकि उनकी कमाई हो रही है वही भविष्यनिधि विभाग (P.F.) का इक्का - दुक्का कोई छोटा सा विज्ञापन देखने को मिलता है। क्योकि वहां पर तो कर्मचारी को ब्याज सहित उसका पैसा वापस करना होता है. 
मुझे याद है 2003 में E.S.I  , 6500 या 6500 से कम वेतन पाने वालो पर लागू थी फिर इसे बढाकर   2004 में 7500/- हो गई उसके कुछ समय बाद  10000/- हुई लगभग 35%  से भी कम , फिर 2010  में  50% की बढ़ो त्तरी  की गई और   15000  तक वेतन पाने वाले E.S.I  रूपी टैक्स का भुगतान करने लगे। अबकी बार लगभग   70% की बढ़ोत्तरी की कवायद चल रही है.हर बार पर्सेंटेज  बढ़ता जा रहा है.  क्योकि सरकार जानती है उसकी जेब में तो आना ही आना है , बढ़ाये जाओ वसूले जाओ जितना ज्यादा से ज्यादा वसूल किया जा सके. 
जबकि पिछले कितने ही सालो से प्रोविडेंट फंड में  कटौती में कोई बदलाव नहीं आया है वह 6500/ पर ही टिका हुआ है. 
E.S.I में अगर किसी ने दो दिन या हफ्ते भर ही काम किया हो उसका भी टैक्स काटना जरुरी है. इतने कम समय में न तो उसकी E.S.I की ओपचारिक्ताये (formality) पूरी होती है और न ही उसके परिवार का कार्ड बन पायेगा परन्तु टैक्स तो काट कर जमा करना अनिवार्य है. 
इसके  बाद E.S.I इन्स्पेक्टर आडिट करने के लिए आते है अब अगर किसी ने जॉब वर्क  करवाया है, या कोई बहरी आदमी से मशीन रिपयेर करवाई है या डेली वैज का भुगतान किया है, तब उसको उस सारे भुगतान पर E.S.I  जमा करवानी पड़ेगी। सवाल उठता है जिस काम को हुए दो- तीन साल ही चुके हैं अब उसको किये गए भुगतान पर E.S.I काट कर जमा करवाने का मतलब  क्या है. उसको तो कोई E.S.I  का लाभ मिला नही और न हि  मिलेगा।
कुल मिला कर यही कह सकते हैं कि गोल माल है भाई सब गोल माल है. 


Wednesday, 13 March 2013

क्या बजट का अर्थ हर साल कुछ नये टैक्स लगाना है



पिछले कितने ही सालो से मै देखता आया हूँ हर साल एक नया बजट आता है और कुछ एक नये टैक्स लग जाते हैं। नौकरशाह पूरे साल बजट की तैयारी  करते रहते हैं। दिमाग लगाते  रहते हैं कि किस तरह से पब्लिक की जेब हल्की  की जाये। और फिर नये - नये तरह के टैक्स थोप दिए जाते हैं। 1994 से पहले सर्विस टैक्स नाम का कोई टैक्स नहीं होता था। नौकरशाहों ने देखा विदेशो में इस तरह का टैक्स लगता है। सोंचा हम भी  लगाते हैं। 1994 से एक नया टैक्स, सर्विस टैक्स के नाम से लगा दिया गया। उस समय केवल 5 प्रतिशत ही देना होता था। फिर धीरे - धीरे बढ़ाते हुए आज 12.36% ले रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि कुछ एक ऐसी सेवाओ पर सर्विस टैक्स लिया जा रहा है जिस पर नहीं लिया जाना चाहिए। जैसे कि कार्मिशियल प्रोपर्टी पर। अब एक आदमी के पास अपनी दूकान या फैक्ट्री नहीं है और व्यापार करना चाहता है तब उसे किराया तो देना ही है पर उस पर टैक्स भी सरकार वसूल रही है। केंद्र की सरकार 12.36% टैक्स वसूल रही है उसके बाद राज्य सरकार 8 से 10 परसेंट स्टाम्प फी भी वसूलती है।
अरे वह तो पहले से ही इस लायक नहीं है की अपनी दूकान या फैक्ट्री खरीद कर रोजी -रोटी की जुगाड़ कर सके और ऊपर से इन्हें उस पर भी टैक्स चाहिए।  ऐसे ही हर साल कुछ नए - नए टैक्स वसूलने के जरिये अपनी कमाई बढ़ाने  के ढूंढे  जाते हैं  
बात यह नहीं है कि आप टैक्स क्यों वसूल रहे हैं बात है क्या जनता की गाढ़े  कमाई का  यह  पैसा समाज के, देश के  निर्माण पर उचित ढंग से खर्च  भी किया जा रहा है या नहीं। जनता की   मेहनत- मशक्कत का पैसा है उसका सही उपयोग हो तो ख़ुशी होती है पर जब उसी पैसे की  फ़िजुलखर्जी  होती है तब दुःख होता है। 
देखता हूँ कभी हमारे पैसे को सौन्दर्यीकरण के नाम पर तो कभी अल्पसंख्यक  तुष्टिकरण के नाम पर तो कभी खेलो के नाम पर और तरह -तरह के अनुदानों पर खर्च किया जाता है। पढ़ा था कामन वेल्थ गेम्स में ए , आर . रहमान ने गेम्स के लिए जो धुन बनाई थी उसके लिए उन्हें 5.50 करोड़ रूपये दिए गए थे। क्या किसी को आज याद   है उन्होंने ने क्या धुन बनाई  थी? जबकि दूरदर्शन  की प्रसिद्द धुन " मिले सुर मेरा तुम्हारा " आज भी उतनी ही ताजगी देने वाली है। इतने सारे कलाकारों को मिला कर बने गई यह धुन अब भी मंत्रमुग्ध करती है। मुझे नहीं लगता कि दूरदर्शन ने कोई बड़ी रकम खर्च की होगी। 
ऐसे ही अभी कुछ दिन पहले पढ़ा था किनया रायपुर में एक नवंबर को आयोजित समारोह में करीना का डांस  भी आयोजित किया गया था। करीना ने इस शो में सिर्फ 8 मिनट का डांस किया था। इसके लिए करीना को 1 करोड 40 लाख 71 हजार रूपए का भुगतान किया गया।
सार्वजनिक निर्माण मंत्री ब्रजमोहन अग्रवाल ने लिखित में जानकारी दी कि समारोह में कुल 245 कलाकारों ने प्रस्तुति दी थी। 1 से 7 नवंबर तक चले इस समारोह में 245 कलाकारों पर 5 करोड 21 लाख 22 हजार 500 रूपए खर्च हुए। अग्रवाल ने हर कलाकार को दिए गए मेहनताने की विस्तृत जानकारी देते हुए बताया कि करीना के अलावा गायक सोनू निगम को 36 लाख 50 हजार, गायिका सुनिधी चौहान को 32 लाख, अभिनेत्री दीया मिर्जा को 22 लाख, गायक हिमेश रेशमिया को 24 लाख, गजल गायक पंकज उधास को 90 हजार रूपए दिए गए। 
कुछ इसी तरह के खर्चो के बारे में छपी खबरे  पढ़े 

अपनी विदेश यात्राओं पर हुए खर्च से उत्पन्न विवाद के बावजूद तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा अपने कार्यकाल के खत्म होने के ठीक पहले की गई अपनी अंतिम विदेश यात्रा पर करीब 18.08 करोड रुपये खर्च आया. यह आधिकारिक जानकारी सूचना के अधिकार के तहत मिली है.
पिछले साल यह खुलासा हुआ कि प्रतिभा पाटिल के पांच साल के कार्यकाल के दौरान 22 देशों की उनकी 12 विदेश यात्राओं पर 205 करोड रुपये खर्च आये. इसमें दक्षिण अफ्रीका और सेसेल्स की यात्रा का खर्च शामिल नहीं था

टाइम्स न्यूज नेटवर्क | May 22, 2012, 08.52AM IST यूपीए सरकार दावे मितव्ययता करती है, लेकिन सामने आ रहीं जानकारियां इसकी पोल खोल रही हैं। प्रजिडेंट प्रतिभा पाटिल की विदेश यात्राओं पर पहले से ही सवाल उठ रहे थे, अब लोकसभा की स्पीकर मीरा कुमार ने सरकार को मुश्किल में डाल दिया है। अपने 35 महीने के कार्यकाल में मीरा कुमार 29 बार विदेश जा चुकी हैं। इस तरह वह हर 37 दिन पर विदेश गईं।
यह सब क्या है ? हमसे टैक्स के रूप में वसूले गए पैसे का इसतरह  खर्च किया जा रहा है। क्या यह गलत नहीं है। 
अब मै  फिर लौट कर मूल मुद्दे पर आता हूँ कि सरकार ने 1000 करोड़ का प्रावधान महिला बैंक के लिए इस बार किया है। समझ में नहीं आया महिलायों के लिए अलग से बैंक बना कर आप क्या हासिल करना चाहते हैं। आजकल तो प्राइवेट बैंक इतने सारे खुल गए हैं और इतनी बेहतर उनकी सर्विस है कि वहां पर जाने की भी जरुरत बहुत कम ही पड़ती है। 
2008 के बजट में सरकार ने किसानो के कर्ज माफ़ करने के लिए आप  52000/- बाबन हजार करोड़ रूपये खर्च करने का एलान किया। यह पैसा भी तो सरकार हमसे टैक्स के रूप में वसूल कर रही है। 
सब बातों की एक बात है अगर सरकार किफ़ायत से चले, टैक्स के  पैसे का सही सदुपयोग करे तो शायद सरकार को हर साल इतने टैक्स लगाने की जरुरत न पडे और जनता की भी जेब इतनी खाली  न हो पर किसको दूसरे  के पैसे का दर्द। 
बचपन से एक कहावत सुनते आया हूँ " कमाई आप की है या बाप की" 
जब बाप की कमाई खर्च करने में बेटो को दर्द नहीं होता है फिर आम जनता की टैक्स की कमाई को खर्च करने में सरकार को  काहे  का दर्द।