Thursday 23 May 2013

आयुर्वेद के साथ कुछ भूली बिसरी बाते





आयुर्वेद के साथ कुछ भूली बिसरी बाते 
अभी पिछले हफ्ते उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में जाना हुआ। यह मेरा native place है। यहाँ आकर पुरानी  बचपन की यादे  ताजा हो जाती हैं।  मेरे दादा जी  (Grand  Father) एक सफल और बहुत प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सक थे। शहर में उनके  दो आयुर्वेदिक चिकित्सालय थे। इसके अलावा हरिद्वार और नैनीताल के पास भुवाली में भी आयुर्वेदिक चिकित्सालय  थे। लेकिन उनकी असमय म्रत्यु हो जाने के कारण  उनका बनाया सब कुछ बिखर गया। पिता जी जोकि अपने भाईयों  में सबसे बड़े थे वह उस समय  17  वर्ष के थे। इस कारण उनके आयुर्वेद की पूंजी को सहेजा  नहीं जा सका। उनके समय की बनाई हुई बहुत सी भस्मे , दवाईयाँ  अभी भी रखी है। आजकल लोग शिलाजीत को बहुत महत्त्व देते हैं काफी कीमती होता है। मुझे याद है  शिलाजीत एक कनस्तर में भरा हुआ घर के छज्जे पर रखा रहता  था और उसको कोई पूछने वाला भी न था। 

मेरे बचपन में   इस शहर में  दो धर्मार्थ आयुर्वेदिक अस्पताल हुआ करते थे। जिसमे से एक  गाँधी धर्मार्थ आयुर्वेदिक अस्पताल  था। इस अस्पताल में मेरे पिता जी प्रधान चिकित्सक हुआ करते थे। दूसरे अस्पताल का नाम जवाहर लाल नेहरु धर्मार्थ आयुर्वेदिक चिकित्सालय है। यह आयुर्वेदिक चिकित्सालय  अभी चल रहा है। 
पिता जी  के  अस्पताल में तरह - तरह की आयुर्वेदिक  दवाए , चूर्ण, भस्म  आदि मरीजो के लिए बनाये जाते थे।  मै भी 1975 से 1977   में वहां पर शाम को 5  से 7  जाया करता था।  अत: कुछ एक   आयुर्वेदिक चूर्ण , दवाओ को बनाने की जानकारी मुझे भी हो गई थी। लेकिन समय चक्र ने इन सारी  बातो को भुला दिया था। 


अभी कुछ समय से मैंने कुछ एक आयुर्वेदिक चूर्ण अपने लिए बनाये। जब मुझे उनसे फायदा हुआ तब मैंने अपने परिचित मित्रो , रिश्तेदारों को देना  शुरू किया। उनको इन दवाओ से फायदा हुआ तो वह अन्य मर्जो की भी दवाये मांगने लगे। मुझे भी अच्छा  लगता था कि इनसे लोगो को फायदा हो रहा है। जबकि वहीं एलोपेथिक दवाओ से लोगो को   साइड इफेक्ट ज्यादा होते है। 
मुझे कुछ आयुर्वेदिक दवाओ के बारे में जानकारी चाहिए थी अत: मै जवाहर लाल नेहरु धर्मार्थ आयुर्वेदिक चिकित्सालय के वैद्य जी से मिलने चला गया।  इस समय आशा के विपरीत चिकित्सालय एक तरह से खाली  था। इक्के - दुक्के मरीज ही वहां पर दवा ले रहे थे। वैद्य जी  के पास कोई मरीज नहीं था, मैंने उन्हें  अपना परिचय दिया और अपने आने का प्रयोजन बताया साथ ही साथ अपने बनाये गए कुछ एक चूर्ण भी दिए । पिताजी से वह बहुत अच्छी तरह से परिचित थे। रोज ही उनमे आपस में दुआ सलाम होती रहती थी।  वह बहुत ख़ुशी से आयुर्वेदिक दवाओ के बारे में जानकारी देने लगे। मै लगभग 2 0 -2 5  मिनट उनके पास बैठा। इस बीच में केवल एक मरीज ही दवा लेने आया। मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ क्योकि मै  जब वहां रहता था तब वहां एक दिन में 500  मरीज दवा  लेने आते थे।  मै सोचने लग गया कि अब  ऐसा क्या हो गया है कि आयुर्वेदिक चिकित्सालय में मरीज ही नहीं है और वहीँ डाक्टर की दुकान पर भीड़ लगी हुई है। 
मुझे याद है उस समय शहर का बड़े से बड़ा आदमी मेरे पिताजी के अस्पताल में दवा लेने के लिए आता था। पर आज कितना बदलाव आ  गया है। शायद लोगो को इन चूर्ण चटनी से ज्यादा डाक्टर की लाल , नीली , पीली गोलियां  अच्छी लगने लगी हैं या उन्हें धर्मार्थ चिकित्सालय में जाना छोटेपन का अहसास दिलाता है। 
यहाँ एक बात कहना और पसंद करूँगा कि आयुर्वेदिक दवाये ज्यादा महँगी नहीं होती हैं पर कारोबारियों ने इन्हें महंगा बना दिया है। 
मुझे  एक दवा बनाने के लिए शुद्ध गंधक 100  ग्राम चाहिए थी। पड़ोस में एक वैद्य  के पास गया। उन्होंने एक दूकान का पता बता दिया। वह दुकानदार  ब्राण्डेड कम्पनी की दवाये बेचता था। 1 0  ग्राम शुद्ध गंधक की कीमत 30  रूपये थी। यानि कि 100  ग्राम की कीमत  300 /- रूपये। वापस आ गया , मैंने 150/-  रूपये में 1  किलो शुद्ध गंधक तैयार कर ली। सोंचिये कितने प्रतिशत लाभ पर यह कम्पनियाँ काम कर रही हैं। 
एक  और उदहारण  दे रहा हूँ। उस समय मै लखनऊ विश्वविधालय में पढता था। मेरे एक मित्र की माता  जी के घुटनों में तकलीफ थी। मैंने उसे अपने पिताजी के अस्पताल की बनी हुई 10 -12  गोलियां योगराज गुग्गल की दे दी। उससे उन्हें बहुत फायदा हुआ।  उस समय मोबाइल फोन का जमाना तो था नहीं, उसके घर से चिट्ठी आई कि दवा की गोलियों से बहुत फायदा हुआ है और चाहिए। मैंने अपने मित्र से कहा कि  फिलहाल अभी बाजार से किसी कम्पनी की महा योगराज गुग्गल की गोलियों  खरीद लो बाद में जब मै घर जाऊंगा तब अस्पताल से लाकर दे दूंगा।  
कुछ दिनों के बाद फिर मित्र  के  घर से  चिठ्ठी आई कि बाजार की गोलियों से कुछ फायदा नहीं हो रहा है वही गोलियाँ चाहिए। सुनकर आश्चर्य हुआ कि मैंने तो उन्हें योगराज गुग्गल दिया था वह फायदा किया और बाजार का महायोगराज गुग्गल फायदा नहीं किया। 
इन सबका कारण  शायद यही है कि आयुर्वेदिक पद्धित से तो सरकार बनाने नहीं देती है। कम्पनिया कच्ची दवाओ को मशीन से पीस कर बनाती हैं। जबकि वहां अस्पताल में इमामदस्ते पर हाथ से कूट कर बनाई जाती थीं। उस समय अस्पताल के पंडित जी जो दवा कूटते थे बताते थे कि योगराज गुग्गल बनाने के लिए सारी दवाओ  को मिला कर एक लाख बार इमामदस्ते पर कुटाई की जाती है तब जाकर योगराज गुग्गल की गोलियां बनती हैं।अब कौन करेगा इतनी मेहनत , सभी पैसा कमाने की दौड़ में शामिल हैं। 
शायद इन्ही सब कारणों  से लोगो में आयुर्वेद के प्रति अविश्वास बढ़ गया है, 
मै तो सभी को आयुर्वेद अपनाने की सलाह  हूँ। जो किसी को एक बीमारी दूर करने के चक्कर में दूसरी बीमारी नहीं लगाती 

Monday 20 May 2013

दिल्ली मेरी दिल्ली


आज बहुत दिनों के बाद  पुराने लोहे वाले पुल से चांदनी चौक जा रहा था। दिल्ली की तरफ से आने वाला मार्ग पुलिस ने अवरुद्ध किया हुआ था। काफी बड़ी संख्या में पुलिस गारद वहां पर थी। लोग रुक कर माजरा समझने की कोशिस कर रहे थे। इस कारण पुल पर काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। ट्रैफिक जाम हो रहा था , मै वगैर रुके अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया। 
पुल से नीचे यमुना का जल  काले से रंग  का दिख रहा था। आज से ३२  साल पहले जब मै दिल्ली आया था तब यमुना के पुल से गुजरते हुए  पहली बार यमुना का काले से रंग के  जल को  जल देखा था तब बचपन में पढ़ी भगवान्  कृष्ण की कालिया नाग मर्दन की कथा याद हो आई थी। जिसमे बताया गया था कि कालिया नाग के जहर से यमुना का पानी भी काला हो गया था। देख कर लगा कालिया नाग तो चला गया पर लगता है अपना जहर छोड़ गया जिससे अभी तक यमुना का जल काला दिख रहा है। 
आज भी चांदनी चौक में वैसा ही भीड़ - भाड  थी जैसी कि आज से ३२  साल पहले जब मै दिल्ली आया था तब होती थी। उस समय मेरा आफिस फतेहपुरी के पास था और मुझे एक कंपनी के आडिट  के लिए  अक्सर  भागीरथ पैलस जाना होता था। मै यह दूरी पैदल ही तय करना पसंद करता था आस - पास के नजारों , दुकानों को देखता हुआ । 
फतेहपुरी के पास एक कुल्फी - फालूदा वाले की दूकान थी, देखता था वहां पर लोग लाइन में लग कर कुल्फी - फालूदा खरीदते थे। मुझे यहाँ यह देख कर आश्चर्य होता था कि लोग पैसे देकर खरीदने के लिए भी लाइन में लगे हुए है जैसे लोग मुफ्त में लेने के लिए लाइन में खड़े होते हैं, मै इस तरह लाइन में खड़े होकर खाने के समान को खरीदना अपनी शान के खिलाफ समझता था। इसलिए मैंने कभी भी उससे कुल्फी - फालूदा नहीं ख़रीदा। लेकिन यह दिल्ली है यहाँ पर लोग खाने - पीने  के बहुत शौक़ीन होते हैं। टाउनहाल के पास एक कंचे वाले सोडे वाले की दुकान थी वहां पर भी खूब भीड़ लगती थी। 
फतेहपुरी से आगे , भागीरथ पैलेस से पहले सेन्ट्रल बैंक बिल्डिंग है, यहाँ के दही - भल्ले बहुत प्रसिद्द थे। वहां पर भी दही - भल्ले खाने वालो की भीड़ लगी रहती थी। वहां से गुजरते हुए अक्सर देखता था कुछ गरीब बच्चे, लोगो द्वारा दही - भल्ले खाकर फेके गए दोनों को चाट रहे होते थे। यह देख बचपन में पढ़ी  हुई पंक्तिया याद हो आती   थी लपक चाटते झूठे पत्ते जिस दिन देखा मैंने नर को, उस दिन सोचा क्यों न लगा दूं, आज आग इस दुनिया भर को'  " 
.आज यहाँ आकर वही सारी  पुरानी बाते ताजा  हो गई थी। 
दिल्ली भी अपने आप में बहुत सारी ख़ासियत लिए हुए है। कभी किसी के साथ दुराव नहीं करती। देश के हर राज्य के लोग यहाँ रह रहे है। सबको रोजी - रोटी देती है पर किसी से यह नहीं कहती तुम मेरी दिल्ली की भाषा बोलो। जिस चाहे जैसे चाहे भाषा में बात करे या रहे उसे कोई एतराज नहीं। 
 जो भी यहाँ आता है  वह यही को होकर रह जाता है। सबके लिए दो वक्त की रोटी की जुगाड़ हो जाती है , कोई भी भूखा यहाँ नहीं सोता।  तभी तो कहते है दिल्ली है दिल वालो की। 
लौटते हुए ४  बजे जब यमुना के लोहे वाले पुल से गुजरा तो सुबह वाली घटना याद हो आई। मैंने जानने की कोशिश की कि सुबह क्यों इतनी पुलिस वहां पर थी। देखता क्या हूँ यमुना के किनारे एक गौशाला बनी हुई थी उसे तहस - नहस करने के लिए पुलिस गारद बुलाई गई थी। इस गौशाला में केवल गाय ही थीं कोई दूध की डेरी  नहीं चलाई जा रही थी। देख रहा था कि इस भरी दोपहर में खुले आसमान के नीचे  खूटे से बंधी हुई उदास सी गाय खड़ी  हुई थीं।  उनका आशियाना उजाड़ दिया गया था। उनकी नाद जिसमे वह खाती थी बुलडोजर ने मिटटी से मिला दिया था।  मूक - निरीह प्राणी को देख ह्रदय करुणा से भर आया। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वह अपनी निर्विकार आँखों से कुछ ढूंढ़  रही है कुछ कह रही हैं।  
मन में विचार  आया कि कितनी आसानी से सरकार ने इनके आशियाने को उजाड़ दिया  क्योकि सरकार को इनका वोट नहीं मिलेगा , इन्हें वोट देने का अधिकार नहीं है यह किसी भी पार्टी को वोट दे कर जीता नहीं सकती। यह वही गाय है जिसे हिन्दू माता बुलाता है। घर में पहली रोटी गाय के लिए निकल कर ही खाना खाता है। वह हमसे कुछ लेती नहीं केवल देती ही है। हम उसे  अनाज का भूसा खाने को देते हैं क्योकि वह भूसा हम नहीं खा सकते और बदले में वह हमें दूध देती है। कितनी कृत्घन है यह सरकार कि हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी सुभाष पार्क की मस्जिद को नहीं तोड़ पाई जो कि किसी का आशियाना नहीं है पर जिन्दा जानवरों के खाने की नाद तक को तोड़ देती है।  

Wednesday 8 May 2013

क्या प्रजातंत्र मूर्खो का शासन है



शेक्सपियर ने कहा था प्रजातंत्र मूर्खो का शासन है। कुछ ऐसा ही दिखता  है हाल में हुए कुछ राज्यों के चुनावी परिणामो पर। 
एक तरफ देखता हूँ प्रतिदिन  न्यूज पेपर में बढती हुई मंहगाई पर चर्चा हो रही होती है, चर्चा हो रही होती है बढ़ते हुए अपराधो पर  चिंता व्यक्त की जा रही होती है कि इस कदर  बढती हुई मंहगाई  की  मंहगाई  सुरसा के  मुंह की तरह बढती जा रही है। दूसरी तरफ केंद्र  की सरकार के  नित्य नए घोटाले जनता के सामने रहे हैं पर फिर भी अगर जनता भ्रष्ट लोगो को ही अगर चुनती है तो इसका अर्थ क्या हैफिर तो यही  कहना पड़ेगा कि  प्रजातंत्र मूर्खो का शासन है।
जनता क्या है हम और आप ही तो जनता है फिर यह कैसी सोंच है हमारी कि हमारे लिए ईमानदारी और नैतिक मुल्य कुछ भी नहीं है। हमें भ्रष्ट लोग ही प्रिय हैं। कुछ साल पहले हमें भ्रष्टाचार से इतनी चिढ थी कि हमने केवल उनके मंत्री के  आरोपों के कारण ही राजीव गाँधी से सत्ता वापस ले ली थी। पर आज इन वर्षो में हमारा इतना नैतिक पतन हो गया है कि हमें सच या झूठ में  अंतर क्या है यही नहीं दिख रहा है। हमने घोटालो और भ्रष्टाचार की माला अपने गले में पहन ली है। हम इन्हें सत्ता का ताज पहना कर महिमामंडित कर रहे हैं 
 इसी सन्दर्भ में चेतन भगत ने अपने ट्वीट में लिखा " भाजपा ने भ्रष्ट मुख्यमंत्री को हटा दिया। वह कर्नाटक में चुनाव हार रही है। अगर वह उन्हें साथ रखती तो जीत जाती। अगर मतदाता ही भ्रष्टाचार की परवाह नहीं करते तो फिर दोष किसे दें।
इस तरह के परिणामो से हर वह व्यक्ति व्यथित हो जाता है जो समाज से उच्चतर मानदंडो की उम्मीद करता है पर जब नैतिक मूल्यों का ह्रास होता हुआ देखता है तो मन में टीस तो होती ही है। कितना नैतिक पतन हो चुका  है हमारा। 
एक बात और जब इस तरह से हम भ्रष्टाचार, घोटाले  करने वालो को समर्थन देते हैं तब तो उनका और मनोबल उठ जाता है। टीवी चैनल पर देखे,  जीत हासिल करने के बाद  किस तरह गर्व के साथ हम पर मुस्करा रहे होते हैं। बड़े आये भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले। देखो हम फिर जीत गए। 
पर इन सबसे होता क्या है हम विश्व अर्थव्यस्था में, देश के विकास में  और पिछड़ते चले जा रहे हैं। हम आज से साठ  साल पहले भी विकासशील थे आज भी विकासशील हैं। विश्व में कई  छोटे - छोटे देश जो कि हमारे एक राज्य से भी छोटे हैं आज  विकसित हैं। हम उनसे टेक्नोलोजी उधार मांगते हैं। उनके उत्पाद खरीद रहे होते हैं। क्योकि हम इतने सछम नहीं हैं। 
जब तक समाज इन लोगो को समर्थन देता रहेगा तब तक हमें कोई भी धमकी दे कर हमारी भूमि को हथियाने की चेष्टा करता रहेगा।